महाशिवरात्रि को लोकप्रबोधन की साधना का संकल्प लें

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महाशिवरात्रि को लोकप्रबोधन की साधना का संकल्प लें

आत्मीय बंधुवर!

महाशिवरात्रि के पावन तिथि पर आपके उज्ज्वल भविष्य एवं आत्मगौरव बोध के जागरण की मंगलकामना करता हूं।

आज समस्त भारत सहित पृथ्वी के विभिन्न भागों में निवास कर रहे भारतीयों और विभिन्न पंथों अथवा मजहबों से पुनः हिन्दू धर्म में प्रवेश किए हुए भारतीयों में बहुतायत संख्या में लोग महाशिवरात्रि का व्रत पालन कर रहे हैं, कोई इस पर्व में सहयोगी की भूमिका में होंगे तो कोई साधना में लीन होंगे। कुछ बंधू नित्य के अभ्यास के अनुसार अपने जीवनचर्या में व्यस्त और कर्तव्यों का पालन करने के लिए अपने कार्यस्थल पर चले गए होंगे विशेषकर सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत लोग जो अमेरिकन या यूरोपियन प्रोजेक्ट्स पर काम करते हैं। कुछ लोग शिव भक्ति में लीन होंगे तो कुछ जप-ध्यान कर रहे होंगे। कुछ लोग इन सबसे अलग सामान्य दिनों की भांति अपनी गतिविधियों में लगे होंगे। हो सकता है अब आपके सोने का समय भी हो गया हो। फिर भी मैं यहां लिख रहा हूं और आप तक पहुंचाने का प्रयास भी किया है। समय हो तो अवश्य पढ़ें।

मैं भी आज महाशिवरात्रि का व्रत पालन कर रहा हूं। सालभर में 12 से 13 शिवरात्रियाँ आती हैं, जो प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को पड़ती हैं, लेकिन महाशिवरात्रि उन सभी में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली मानी जाती है। यह तिथि साधकों के लिए विशेष रूप से प्रतीक्षित होती है क्योंकि इस दिन आध्यात्मिक ऊर्जा अत्यधिक सक्रिय रहती है, जिससे साधना, ध्यान और संकल्प सिद्धि की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। महाशिवरात्रि केवल एक पर्व नहीं, बल्कि आत्मचिंतन, जागरण और शिव तत्व से जुड़ने का दिव्य अवसर है। इस दिन विशेष संकल्प लेना और उसे पूर्ण करने का प्रयास करना अत्यंत फलदायी माना जाता है, क्योंकि यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा से संरेखित होकर व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त करता है। शिवोपासना, रात्रि जागरण, मंत्र जप और उपवास के माध्यम से साधक अपनी आत्मा को उच्चतर चेतना से जोड़ सकते हैं, जिससे जीवन में सकारात्मक परिवर्तन एवं मानसिक शुद्धि प्राप्त होती है। अध्यात्मिक चेतना के जागरण तथा अध्यात्मिक ऊर्जा के अभाव में न कोई व्यक्ति कोई महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है, न कोई समाज सभ्यता के मानबिन्दुओं के प्रतिमान स्थापित कर सकता है और न ही कोई राष्ट्र संपूर्ण चराचर जगत के कल्याण के निमित्त यशस्वी पराक्रम कर सकता है।

बड़े विमान को उतरने के लिए जिस प्रकार एक उपयुक्त, व्यवस्थित और दृढ़ लैंडिंग ग्राउंड की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार समष्टि हितकारी कार्यों को संपन्न करने के लिए व्यक्ति का तन स्वस्थ, मन मर्यादित, बुद्धि प्रखर और चिंतन राष्ट्रहितकारी होना अनिवार्य है। जब कोई व्यक्ति समाज और राष्ट्र के कल्याण के लिए कार्य करता है, तो उसे मानसिक और शारीरिक रूप से सक्षम होने के साथ-साथ विवेकशीलता और नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण होना चाहिए। सही मार्गदर्शन, धैर्य और दृढ़ संकल्प के बिना कोई भी महान कार्य सफलतापूर्वक पूरा नहीं किया जा सकता। जो लोग राष्ट्र निर्माण में योगदान देना चाहते हैं, उन्हें अपने शरीर, मन और बुद्धि को सही दिशा में विकसित करना आवश्यक है।

स्वामी विवेकानंद, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जैसे महान व्यक्तित्वों का जीवन इस तथ्य का उदाहरण है। स्वामी विवेकानंद ने भारतीय युवाओं में आत्मविश्वास और राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत की, वहीं डॉ. राधाकृष्णन ने शिक्षा और भारतीय संस्कृति के महत्व को विश्व पटल पर स्थापित किया। डॉ. कलाम ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत को नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया और युवाओं को सपने देखने व उन्हें साकार करने की प्रेरणा दी। इन महापुरुषों ने अपने समर्पित प्रयासों से न केवल समाज की दशा बदली बल्कि लोगों के चिंतन की दिशा भी परिवर्तित कर दी।

इन सभी महापुरुषों की सफलता के पीछे उनका अनुशासित जीवन, अटूट कर्मठता और राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना थी। उन्होंने यह सिद्ध किया कि यदि व्यक्ति स्वस्थ शरीर, संयमित मन, तीव्र बुद्धि और सकारात्मक चिंतन के साथ कार्य करता है, तो वह न केवल स्वयं का विकास करता है बल्कि पूरे समाज और देश को प्रगति के मार्ग पर अग्रसर कर सकता है। इसलिए, यदि हमें समाज और राष्ट्र के उत्थान में योगदान देना है, तो इन गुणों को आत्मसात करना आवश्यक है। इसी से हमारा जीवन सार्थक होगा और राष्ट्र उन्नति के पथ पर आगे बढ़ सकेगा।

भारत का इतिहास अत्यंत समृद्ध और गौरवशाली रहा है, जिसमें विभिन्न युगों में अनेक महान सम्राटों, दार्शनिकों, विद्वानों और योद्धाओं ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। पुरातात्विक खुदाइयों से निरंतर यह प्रमाणित होता रहा है कि भारत की सभ्यता केवल सिंधु घाटी तक सीमित नहीं थी, बल्कि उससे भी पुरानी सरस्वती सभ्यता का अस्तित्व रहा है। इस सभ्यता के प्रमाण हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में प्राप्त हुए हैं, जो दर्शाते हैं कि भारत वैज्ञानिक सोच, नगर नियोजन, व्यापारिक समृद्धि और सांस्कृतिक चेतना के क्षेत्र में अत्यंत उन्नत रहा है। इन अनुशंधानो से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय उपमहाद्वीप केवल इतिहास का एक भाग नहीं बल्कि सभ्यता का केंद्र रहा है।

दुर्भाग्यवश, हमारी नई पीढ़ी को इस गौरवशाली अतीत से अवगत कराने की पहल उतनी प्रभावी नहीं रही, जितनी होनी चाहिए। औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों ने जानबूझकर भारतीय इतिहास को विकृत किया और हमारी प्राचीन उपलब्धियों को महत्वहीन दर्शाने का प्रयास किया। उन्होंने शिक्षा प्रणाली को इस प्रकार ढाला कि भारतीय समाज अपनी ही सांस्कृतिक धरोहर से कट जाए और पश्चिमी मूल्यों को श्रेष्ठ मानने लगे। स्वतंत्रता के बाद भी, इस धारणा को चुनौती देने के प्रयास अपेक्षाकृत कमजोर रहे, जिससे हमारी युवा पीढ़ी अपनी ही महान परंपराओं और इतिहास से अनभिज्ञ रह गई।

भारतीय पाठ्यक्रमों में यदि हम ध्यान दें तो पाएंगे कि चाणक्य, चंद्रगुप्त मौर्य, सम्राट विक्रमादित्य, सम्राट अशोक, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, चोल साम्राज्य, अहोम साम्राज्य, विजयनगर साम्राज्य, मगध साम्राज्य, तक्षशिला विश्वविद्यालय, नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय जैसी महान संस्थाओं और व्यक्तित्वों का उल्लेख नगण्य है। जबकि ये सभी भारत के आर्थिक, सामरिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षणिक उत्थान के स्तंभ रहे हैं। तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय विश्व के पहले और सबसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में से एक थे, जहाँ देश-विदेश से विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करने आते थे।

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इतिहास के ऐसे गौरवशाली पक्षों को न पढ़ाने से युवाओं में अपनी संस्कृति और जड़ों के प्रति अनभिज्ञता उत्पन्न होती है। यदि उन्हें अपने गौरवशाली अतीत का ज्ञान नहीं होगा, तो वे अपनी संस्कृति को पुनर्जीवित करने और उसे आधुनिक युग में पुनर्स्थापित करने के प्रयासों में रुचि नहीं लेंगे। भारत का इतिहास केवल कुछ पराजयों और विदेशी आक्रमणों तक सीमित नहीं है। हमारा गौरवशाली इतिहास सतत संघर्ष का इतिहास है। किसी भी आक्रांता को शांति से शासन करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। वे निरंतर संघर्ष में रहे। हमारे पराक्रमी पूर्वजों ने एक मोर्चे पर हार जाने के बाद पराजय नहीं स्वीकारी बल्कि दूसरा मोर्चा खोला, शक्ति संचय की और मजबूती से प्रहार किया। इतिहास के सबसे क्रूरतम शासकों में से एक औरंगजेब का भी सम्पूर्ण भारत पर शासन का स्वप्न पूरा न हुआ और जीवन के अंतिम दो दशक तो भटकते, भागते, बचते-बचते, मरते मरते हुए बिता। मराठों ने उसे चैन की नींद तक नहीं सोने दी। वैसे ही भारत वैज्ञानिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामरिक सफलता का प्रतीक भी रहा है। अतः यह आवश्यक है कि शिक्षा व्यवस्था में ऐसे विषयों को सम्मिलित किया जाए जो भारतीय सभ्यता की वास्तविकता को प्रस्तुत करें।

यदि हमारी नई पीढ़ी को भारत के वास्तविक इतिहास और उसकी महान उपलब्धियों का बोध कराया जाए, तो उनमें अपने देश और संस्कृति के प्रति गर्व और सम्मान की भावना विकसित होगी। उन्हें यह समझ में आएगा कि भारत केवल एक भूखंड नहीं, बल्कि एक विचार, एक दर्शन और एक सभ्यता है, जिसने हजारों वर्षों तक पूरे विश्व को ज्ञान, विज्ञान, दर्शन और संस्कृति का प्रकाश दिया है। इस दिशा में पाठ्यक्रम सुधार, शोध कार्यों का प्रसार, और भारतीय इतिहास को सही संदर्भ में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है, ताकि हम अपनी जड़ों को सुदृढ़ करते हुए भविष्य का निर्माण कर सकें।

हमारी आत्मविस्मृति के रोग का सबसे आधुनिक विषाणु अगर कोई है तो वो है मैकाले। थॉमस बैबिंगटन मैकाले ने जिस रणनीति के तहत भारत की शिक्षा प्रणाली को बदला, उसका प्रभाव आज भी देखा जा सकता है। 1835 में उसने “Minutes on Indian Education” नामक दस्तावेज़ में स्पष्ट रूप से लिखा था कि उसका उद्देश्य भारत में एक ऐसी श्रेणी का निर्माण करना है जो रंग-रूप से तो भारतीय हो, लेकिन सोचने और समझने के स्तर पर पूरी तरह से अंग्रेजों जैसी हो। यह नीति केवल भाषा परिवर्तन तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसके पीछे भारत की सांस्कृतिक चेतना को कमजोर करने और मानसिक गुलामी को बढ़ावा देने की एक गहरी साजिश थी। दुर्भाग्यवश, ब्रिटिश शासन के समाप्त होने के बाद भी हमारी शिक्षा प्रणाली, प्रशासनिक ढांचा और बौद्धिक विमर्श उसी दिशा में आगे बढ़ता रहा, जिससे हमारा आत्मगौरव बोध पुनर्जीवित नहीं हो सका।

स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद भी यह प्रश्न बना हुआ है कि क्या हमने वास्तविक रूप से स्वराज प्राप्त कर लिया है? महात्मा गांधी का स्वराज केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं था, बल्कि यह मानसिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्वतंत्रता का भी द्योतक था। परंतु आज भी हमारी शिक्षा व्यवस्था भारतीय इतिहास और परंपराओं को वह स्थान नहीं देती, जो उन्हें मिलना चाहिए। हमारी पाठ्यपुस्तकों में प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा, गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्सा, दर्शन और साहित्य की महान उपलब्धियों का समुचित उल्लेख नहीं मिलता। इसके बजाय, इतिहास को इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है जिससे यह धारणा बनती है कि भारत हमेशा विदेशी आक्रमणों और बाहरी शक्तियों के अधीन रहा, जबकि सत्य यह है कि हमारे पास एक अत्यंत समृद्ध और शक्तिशाली इतिहास रहा है।

आज भी कई युवा भारतीय अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी संस्कृति को आधुनिकता का पर्याय मानते हैं, जबकि अपनी ही भाषाओं और परंपराओं को पिछड़ा हुआ समझते हैं। यह उसी मानसिकता का परिणाम है जिसे मैकाले ने स्थापित किया था। हमें यह समझना होगा कि विज्ञान, व्यापार, राजनीति और शिक्षा के क्षेत्र में भारत की प्राचीन विरासत अद्वितीय थी। तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों में पूरी दुनिया से छात्र अध्ययन करने आते थे, आयुर्वेद और योग जैसी पद्धतियाँ हजारों वर्षों से मानव कल्याण के लिए उपयोगी रही हैं, और भारतीय गणितज्ञों ने शून्य, अंकगणित और बीजगणित में क्रांतिकारी योगदान दिया था। फिर भी, हमें यह ज्ञान स्कूलों और विश्वविद्यालयों में व्यापक रूप से नहीं सिखाया जाता।

यह भी विचारणीय है कि क्या भारत की नीतियाँ और प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह स्वतंत्र मानसिकता के साथ कार्य कर रही हैं, या फिर वे आज भी उसी औपनिवेशिक मानसिकता से प्रभावित हैं? भारतीय कानून, नौकरशाही, शिक्षा व्यवस्था और शासन प्रणाली अभी भी उसी ढांचे पर कार्य कर रही हैं, जो ब्रिटिश काल में बनाई गई थी। यदि हम मानसिक रूप से स्वतंत्र होते, तो क्या हम अपनी न्याय प्रणाली, शिक्षा पद्धति और प्रशासनिक प्रणाली में भारतीयता का समावेश नहीं करते? क्या हमें पश्चिमी स्वीकृति की आवश्यकता होती? आज भी हमारे नीतिगत निर्णयों में पश्चिमी देशों की ओर देखने की प्रवृत्ति बनी हुई है, जो दर्शाता है कि हमने पूर्ण रूप से स्वतंत्रता प्राप्त नहीं की है।

यह कहा जा सकता है कि हमें केवल राजनीतिक स्वतंत्रता मिली है, लेकिन मानसिक और सांस्कृतिक स्वराज प्राप्त करने के लिए अभी लंबा सफर तय करना बाकी है। आत्मगौरव बोध तब ही जागृत होगा जब हम अपने इतिहास, परंपराओं और संस्कृति को पुनः पहचानेंगे और उन्हें आधुनिक संदर्भ में पुनः स्थापित करेंगे। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा प्रणाली में बदलाव लाया जाए, स्वदेशी चिंतन को बढ़ावा दिया जाए, भारतीय भाषाओं में शोध और ज्ञान का प्रसार हो, और आत्मनिर्भरता की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएँ। जब तक हम अपने गौरवशाली अतीत को पहचानकर, आत्मविश्वास के साथ भविष्य की ओर नहीं बढ़ते, तब तक यह प्रश्न बना रहेगा कि क्या हम वास्तव में मैकाले की मानसिकता से मुक्त हुए हैं या नहीं?

जब तक कोई राष्ट्र अपनी जड़ों और गौरवशाली परंपराओं से जुड़ा नहीं होता, तब तक वह सच्चे अर्थों में विकसित नहीं हो सकता। केवल आर्थिक समृद्धि और भौतिक उन्नति ही किसी देश की पहचान नहीं होती; असली पहचान उसकी सांस्कृतिक चेतना, ऐतिहासिक बोध और आत्मगौरव में निहित होती है। यदि हमारे देश के युवा अपनी महान विरासत से अनभिज्ञ रहेंगे, तो उनके भीतर आत्मगौरव जागृत नहीं हो पाएगा, और बिना आत्मगौरव के कोई भी समाज अपने सर्वोत्तम स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए यह आवश्यक है कि हम अपनी युवा पीढ़ी को भारत के गौरवशाली अतीत से परिचित कराएं और उन्हें इस दिशा में जागरूक करने का हरसंभव प्रयास करें।

आत्मबोध और आत्मगौरव का जागरण तभी संभव है जब हम अपने प्राचीन ग्रंथों, ऐतिहासिक शिलालेखों, महाकाव्यों, विज्ञान और कला की उन विधाओं को पुनः आत्मसात करें जो कभी भारत की पहचान थीं। आज की शिक्षा प्रणाली में इन महत्वपूर्ण विषयों की घोर उपेक्षा हुई है, जिससे युवाओं को अपने इतिहास और संस्कृति से कटने के लिए बाध्य किया गया है। हमें केवल वही इतिहास पढ़ाया गया जो विदेशी दृष्टिकोण से लिखा गया, जिसमें भारत को एक पराजित, परतंत्र और पिछड़ा हुआ राष्ट्र दर्शाने की साजिश की गई। यदि हम इस मानसिक गुलामी से बाहर नहीं निकलते, तो राष्ट्र के वास्तविक विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

इसलिए, हर व्यक्ति को अपने स्तर पर प्रयास करना होगा। यह प्रयास केवल शिक्षकों या इतिहासकारों का नहीं, बल्कि हर उस नागरिक का होना चाहिए जो अपनी संस्कृति और राष्ट्र के प्रति समर्पित है। हमें अपने परिवार, मित्रों, सहकर्मियों और समाज के अन्य लोगों को अपने गौरवशाली अतीत के बारे में बताना चाहिए। पुस्तकों, शोधपत्रों और अन्य स्रोतों से वास्तविक इतिहास को पढ़कर, उसे आगे साझा करना आवश्यक है। इसके अलावा, सामाजिक संवाद, विचार-विमर्श और लेखन के माध्यम से इस चेतना को जगाने का कार्य करना होगा। यदि हम सब मिलकर प्रयास करें तो निश्चित ही आने वाली पीढ़ियां अपने आत्मगौरव को पुनः प्राप्त कर सकेंगी।

महाशिवरात्रि, जो ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन की रात्रि है, हमें इस दिशा में संकल्प लेने का एक उत्कृष्ट अवसर प्रदान करती है। शिव, जो संहारक भी हैं और सृजन के प्रतीक भी, हमें यह प्रेरणा देते हैं कि हम नकारात्मकता को नष्ट करें और सकारात्मकता को विकसित करें। यह रात्रि केवल आध्यात्मिक साधना की नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र की चेतना को जागृत करने का भी संदेश देती है। इसलिए, इस पावन अवसर पर हम अपने भीतर की ऊर्जा को जागृत करें और लोकप्रबोधन के इस महत कार्य का संकल्प लें।
आइए, हम सब मिलकर आत्मगौरव बोध को पुनर्जीवित करने के इस अभियान में भाग लें। अपने इतिहास, संस्कृति और ज्ञान परंपरा को पुनः स्थापित करने के लिए पहला कदम उठाएं। यही सच्चा राष्ट्रधर्म है, और यही वास्तविक विकास की नींव है। महादेव हम सभी को इस पथ पर अडिग रहने की शक्ति प्रदान करें।

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1 reply on “महाशिवरात्रि को लोकप्रबोधन की साधना का संकल्प लें”

चरैवेती चरैवेती।
भविष्य को उन्नत बनाने के लिए अतीत का ज्ञान आवश्यक है। अतः सही ज्ञान जन तक पहुंचाने का कार्य निरंतर होना चाहिए और ऐसे पहल को सदा स्वीकार्य है।

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