
विश्व प्रार्थना का स्वर : गुरु नानक देव
1883 के 7 अप्रैल, शनिवार का दिन, संध्या का समय था । कोलकाता के बाग बाजार में बलराम बसु के घर में श्रीरामकृष्ण परमहंस देव आए। भक्तजनों से मिलने, उनसे गपशप करने और विविध शंकाओं का निराकरण करने के लिए ऐसा आना जाना लगा रहता था। भक्तजनों में उस दिन कई दिग्गज लोग उपस्थित थे, उन सब के साथ एक नवयुवक भी बैठा था। जोरदार गपशप चल रहा था, इसी बीच ठाकुर उस युवा को बोले, ओ नरेन, कोई गीत गा रे। श्रीरामकृष्ण देव के कहने पर नरेन उस दिन कुल पांच गीत गाए।
यह नरेन वही नरेन्द्रनाथ दत्त हैं, जो आगे चलकर स्वामी विवेकानंद हुए। उन्होंने चौथा गीत जो गाया वो रविंद्रनाथ ठाकुर का प्रथम लिखित गीत था– “गगनेर थाले रवि चंद्र दीपक ज्वले”। यह कोई साधारण गीत नहीं था, इसके साथ भारत के पूर्व का पश्चिम से एक महत्वपूर्ण सम्बन्ध जुड़ा है। एक और भी महत्वपूर्ण कारण है, गुरु नानक देव जी के साथ इस गीत का अनोखा सम्बन्ध।
गुरु नानक देव जी ने अपने जीवनकाल में चार यात्राएँ कीं, जिन्हें हम “उदासी” के नाम से जानते हैं। पहली उदासी 1500 से 1506 तक पूर्व दिशा में हुई। इस दौरान उन्होंने दिल्ली, नैनीताल, वाराणसी होते हुए कामरूप (असम), बर्मा, बंग, ओड़िशा, मध्य प्रदेश और हरियाणा तक यात्रा की। दूसरी उदासी 1506 से 1513 तक हुई, जिसमें उन्होंने धनसारी घाटी और सांगला द्वीप की यात्रा की। तीसरी उदासी 1514 से 1518 तक उत्तर दिशा में रही, जहाँ वे कश्मीर, तिब्बत, नेपाल और सिक्किम के हिमालयी क्षेत्रों में गए। चौथी उदासी 1519 से 1521 तक हुई, जिसके दौरान वे ईराक, अरब और मक्का पहुँचे। इन सभी उदासियों के दौरान अनगिनत रोचक और शिक्षाप्रद घटनाएँ घटीं।
इस पूर्व की यात्रा के समय, बंग प्रदेश से होते हुए, सन 1506 में ओड़िशा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर गए। वहाँ, जब लोगों ने लंबी दाढ़ी वाले, पगड़ी पहने एक संत को अलग ही वेशभूषा में देखा, तो उन्होंने उन्हें खलीफा समझकर मंदिर में प्रवेश करने से रोक दिया। इसके बाद, गुरु नानक देव अपनी भक्त मंडली के साथ समुद्र किनारे चले गए और वहाँ भजन-कीर्तन करने लगे। उस समय, ओड़िशा में राजा प्रतापरुद्र देव का शासन था। राजा को जब स्वयं जगन्नाथ प्रभु ने स्वप्न में आकर कहा कि मंदिर में नियमित रूप से होने वाली आरती बंद कर दी जाए, क्योंकि उस समय वे समुद्र किनारे गुरु नानक का भजन सुन रहे होते हैं, तब राजा स्वयं जाकर गुरु नानक को सम्मानपूर्वक मंदिर में लेकर आए।
निराकार परब्रह्म की आराधना करने वाले गुरु नानक देव जी जब मंदिर के अंदर जगन्नाथ जी का साक्षात्कार करते हैं और उसी समय बड़ी सी थाली में फूल-पत्ते सजाकर, घंटा-ढोल बजाकर, दीप जलाकर आरती होते देखते हैं, तो उनके मन में दिव्य भाव जाग्रत हो जाते हैं। दोनों आंखों से अश्रुधारा बहने लगती है, और वे भाव-विभोर होकर जगन्नाथ प्रभु के विग्रह को निहारने लगते हैं।
जगन्नाथ प्रभु का अद्भुत विग्रह, जिनके हाथ-पैर नहीं हैं, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है मानो वे सब कुछ करने वाले, सबको चलाने वाले और अपलक नयनों से सभी को देखने वाले हैं। गुरु नानक देव जी इस आरती को देखकर सबमें व्याप्त एक परमेश्वर की अनुभूति करते हैं और वहीं पर आरती गाने लगते हैं—
“गगन में थाल, रवि-चंद्र दीपक बन, तारका मंडल…”
1873 में, रवींद्रनाथ ठाकुर अपने उपनयन संस्कार के पश्चात पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर के साथ अमृतसर प्रवास पर आए। स्वर्ण मंदिर में इस भजन को सुनने के बाद उनके हृदय में एकात्मता का अद्भुत सुर अंकित हो गया।
1875 में, कोलकाता के जोड़ासाँको स्थित ठाकुर बाड़ी में आयोजित “माघोत्सव” कार्यक्रम में इस भजन का बांग्ला भाषा में अनुवादित संस्करण गाया गया। गुरु नानक देव जी का यह भजन ब्राह्म समाज की पाक्षिक पत्रिका ‘धर्मतत्त्व’ के सितंबर 1872 के अंक में बांग्ला अक्षरों में प्रकाशित हुआ था। इसके पश्चात, ‘तत्त्वबोधिनी’ पत्रिका के फाल्गुन अंक में इसका भावार्थ प्रकाशित किया गया। बाद में, जब रवींद्रनाथ ठाकुर अपने पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर के साथ अमृतसर की यात्रा पर आए, तो उन्होंने इस प्रसिद्ध भजन को पुनः सुना और इससे प्रेरित होकर उसका काव्यात्मक अनुवाद किया।
रबींद्रनाथ ठाकुर ने बाद में शांतिनिकेतन नाम से भारतीय शैक्षिक परंपरा के अनुसार एक शिक्षा केंद्र की स्थापना की, जो आज प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय का आकार ले चुका है और “विश्व भारती” के नाम से विख्यात है। यहाँ देश-विदेश से लाखों विद्यार्थी अध्ययन के लिए आते रहते हैं। कई विख्यात व्यक्तित्व शिक्षक के रूप में अध्यापन कार्य कर चुके हैं। इन्हीं में से एक प्रसिद्ध चलचित्र कलाकार बलराज साहनी भी कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य कर चुके थे।
बलराज साहनी उस समय शांतिनिकेतन में अंग्रेजी और हिंदी के शिक्षक थे। उन्होंने कविगुरु से भारतीय राष्ट्रगीत की तरह एक विश्व प्रार्थना गीत लिखने की इच्छा व्यक्त की। इस पर रवींद्रनाथ ने कहा, “विश्व प्रार्थना बहुत समय से होती आ रही है। यह केवल विश्व प्रार्थना नहीं, बल्कि ब्रह्मांड प्रार्थना है, जिसे गुरु नानक देव ने लिखा है।”
गगन में थालु रवि चंदु दीपक।
बने तारिका मण्डल जनक मोती।।
धूपमल आनलो पवणु चवरो करे।
सगल बनराई फूलंत जोति ।।
कैसी आरती होई भवखंडना तेरी आरती।
अनहता सबद बाजंत भेरी रहाउ।।
सहस तव नैन नन नैन है तोहि कउ।
सहस मूरती मना एक तोही।।
सहस पद विमल रंग एक पद गंध बिनु।
सहस तव गंध इव चलत मोहि ।।
सभमहि जोति–जोति है सोई,
तिसकै चानणि सभ महि चानणु होई।
गुरसाखी जोति परगुट होई।
जो तिसु भावै सु आरती होई ।।
हरि चरण कमल मकरंद लोभित मनो,
अनदिनी मोहि आहि पिआसा।
कृपा जलु देहि नानक सारिंग,
कउ होई जाते तेरे नामि वासा।।
उसमें ईश्वर का अभूतपूर्व वर्णन किया गया है—आकाश पूजा का थाल है, जिसमें सूर्य और चंद्र दीप हैं। तारे आपके आभूषण हैं, और चंदन की सुगंध से सुवासित हवा वातावरण को पवित्र करती है। प्रभु के असंख्य हाथ, पैर और आँखें हैं। वे अनेक रूपों में एक ही हैं।
एक संत, जो भारत के पश्चिम से आकर पूर्व में संगीत जगत तथा अध्यात्म से गहन संबंध स्थापित करते हैं, भजनों के माध्यम से ईश्वर से जोड़ने का कार्य करते हैं। भजन की प्रत्येक पंक्ति व्यक्ति को परमेश्वर के समीप ले जाती है। कितना अद्भुत संयोग है कि इस भजन को लिखने वाले भक्ति मार्ग के प्रमुख संत, गुरु नानक देव जी हैं, और इसका अनुवाद विश्वप्रसिद्ध कवि, लेखक एवं साहित्यकार रवींद्रनाथ ठाकुर ने किया।
और यह भी विशेष है कि यह अनुवादित गीत ‘ब्रह्म संगीत’ के रूप में स्थान पाता है। ब्रह्म समाज भी निराकार ब्रह्म स्वरूप की पूजा करता है। इसी भजन का गायन स्वयं पूज्य स्वामी विवेकानंद जी करते थे—वे जो प्रसिद्ध कालीमाता के भक्त थे और जिन्होंने दृढ़ विश्वास के साथ कहा था कि उन्होंने ईश्वर का साक्षात्कार किया है तथा अन्य लोगों को भी उसका दर्शन करवा सकते हैं। यह भजन उन्होंने स्वयं श्रीरामकृष्ण परमहंस देव के सम्मुख गाया था। यह इस भजन की एकात्मता और अद्भुत शक्ति का ही प्रमाण प्रतीत होता है।
कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर के शब्द सत्य प्रतीत होते हैं—यह भजन वास्तव में विश्व-प्रार्थना ही है।