भारतीय संस्कृति में सत्य युग से आज तक चले आ रहा एक अनुपम परंपरा — रक्षा बंधन 

भारतीय संस्कृति में सत्य युग से आज तक चले आ रहा एक अनुपम परंपरा — रक्षा बंधन 

अनगिनत पर्व और उत्सवों से भरा हुआ अपने संस्कृति में कुछ ऐसा भी पर्व है जो सदियों से चले आ रहे हैं। उस में से प्रमुख एक पर्व है रक्षा बंधन। समय के साथ साथ इसका रुप में थोड़ा बहुत परिवर्तन हुआ है परंतु भाव व महत्व कम नहीं हुआ।

राजा बली और माता लक्ष्मी की कहानी

दानवों के राजा बली जब अपने शौर्य से तीनों लोकों पर अपना साम्राज्य विस्तार कर लिया। देवराज इंद्र ने देवताओं के साथ सबका ताड़न हार श्रीविष्णु के पास गए और स्वर्ग पुनः प्राप्त करने के लिए याचना की। अस्त्र-शस्त्र विद्या में अपराजेय दानवेन्द्रो बली को पराजित करना अत्यंत कठिन था। गुरु शुक्राचार्य की सिद्ध शक्ति निरंतर दानवों का रक्षा कर रहा था। ऐसे में प्रत्यक्ष युद्ध न करके कौशल से पराजित करने का उपाय अनुसंधान कर रहे थे। तब श्रीविष्णु ने वामन अवतार लिए।

जब राजा बली ने यज्ञ का आयोजन किए तो वहा पर वामन रूपी श्रीविष्णु ने उपस्थित हो गए। यज्ञ के उपरांत बली ने दान-दक्षिणा दे रहे तब वामनदेव से क्या दान चाहिए, इसके उत्तर मे उन्होने वामनदेव ने बताया, क्या जो चाहिए वो ही मिलेगा? राजा ने सहर्ष इसकी सहमति जताई और ब्राह्मण कुमार को अभिष्ट अवश्य प्राप्त होगा। वामन ने जब अपने लिए तीन पग भूमि की मांग की तो गुरु शुक्राचार्य इसमे देवताओं का छल का आभास किया और राजा बली को रोकना चाहा, परंतु राजा वचनबद्ध थे और वामनदेव को भूमि का परिमाप करने का आग्रह किया। वामनदेव ने विशाल रूप धारण कर दो ही पग मे तीनों लोक माप लिए और कहां तीसरे पग रखने का स्थान ही तो नहीं है। राजा बली ने कहां आपका तो और पैर भी तो नहीं है। तब वामनदेव के नाभी से और एक पैर बाहर आया, राजा ने उसे अपने मस्तक पर स्थान दिया। वह तीसरे पैर से बली को पाताल मे भेज दिया।

बली अपना सर्वस्व खोकर श्रीविष्णु से अनुरोध किया आप इच्छा तो हम ने पूर्ण किए अभी इस भक्त का इच्छा आप पूर्ण किजिए, प्रभु आप भी एही पर विराजमान हो जाइए। तब भगवान भी भक्त का इच्छानुसार वही रह गए।

इधर श्रीविष्णु पाताल लोक में और माता लक्ष्मी वैकुण्ठ धाम मे अकेली। पति के संधान करने लगी। त्रिभुवन मे हर किसी का पता देवर्षि नारद के अतिरिक्त किस के पास हो सकता है? अतः माता लक्ष्मी नारद मुनि को हिमालय के एक स्थान मे मिले, जहाँ वे प्रभु श्री नारायण का पूजा कर रहे थे। माता लक्ष्मी के अनुरोध पर नारद जी ने उन्हे राजा वली के पास ले जाने के लिए सहमत हुए। और साथ मे एक सूत्र को राजा वली के कलाई पर बांधकर उन्हे अपना भाई बनाने का परामर्श दिया, ताकि वे बहन के खुशी के लिए नारायण को मुक्त कर दे।

वह दिन था श्रावण के पूर्णिमा तिथि। माता लक्ष्मी राजा बली को उनके कोई भाई नहीं होने का दुख बताए। तब बली ने उन्हे भाई मानने का प्रस्ताव दिया। बहन ने प्रस्ताव को स्वीकार कर एक रक्षा सूत्र बली के कलाई पर बांधते हुए कहा

येन बद्ध बली राजा दानवेंद्रो महाबलः।

तेन त्वां अनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।

बहन को भाई ने अपना मनचाहा उपहार देना चाहा। तब बहन ने उनके पति को मुक्त करने का मांग रखा। बली ने पूछा, कौन तुम्हारे पति है और किसने उन्हे बंदी करके रखा है? उत्तर मे माता लक्ष्मी ने अपना वास्तविक परिचय देते हुए श्री विष्णु को मुक्त करने का बात कहे। राजा बली ने भी अपना भाई होने का कर्तव्य निभाते हुए श्री विष्णु को मुक्त कर दिया।

इधर देवर्षि नारद एकदिन के लिए श्रीनारायण का पूजा छोड़कर चले तो उस दिन एक व्यक्ति वहाँ जाकर पूजा किए। तब से हर साल श्रावण के पूर्णिमा तिथि मे यानी की रक्षाबंधन के दिन बस एकदिन के लिए वह मन्दिर खोला जाता है। नारायण को अपना भाई मानकर कुमारी कन्याएँ नारायण को राखी बांधते है। आजके उत्तराखंड राज्य मे चमोली जिले मे स्थित उस वंशी नारायण मन्दिर मे उस दिन मक्खन का भोग लगता है। पथरीले जंगल के दुर्गम मार्ग से दूर दूर से भक्तों का आगमन होता है।

रक्षाबंधन

 

रामायण और महाभारत में रक्षाबंधन

रामायण की एक कहानी के अनुसार रक्षा के कामना से माता सीता ने लव और कुश को रक्षा सूत्र बांधा था। महाभारत में जब कुमारी कुंती के संतान जन्म हुआ तो उस बच्चे को लोक लज्जा से बचाने के लिए नदी में बहा दीं। परंतु उसकी सुरक्षा की कामना करते हुए रक्षा सूत्र बांध दीं।

एक बार श्रीकृष्ण को किसी कारण हाथ में चोट लग जाती है। और उस समय द्रौपदी ने अपने साड़ी से एक टुकड़ा फाड़ कर प्रिय भाई के हाथ में बांध दिया। तब श्रीकृष्ण ने भी बहन को रक्षा का आश्वासन दिया था। कुछ वर्ष उपरांत चौसर की क्रीड़ा में जब अपना सब कुछ दांव पर लगाने के बाद सभी भाई एवं पत्नी द्रौपदी को भी दांव पर लगा कर हार चुके थे। दुर्योधन ने राजसभा में द्रौपदी को लाने का आदेश दिया। दुःशासन ने आज्ञा का पालन करते हुए द्रौपदी के केश पकड़ कर ले आया। पितामह भीष्म, विदुर, धृतराष्ट्र आदि सभी जेष्ठ श्रेष्ठ मौन रहे। पराजित पांडवों भी विवश था। ऐसे में दुर्योधन ने सभा के बीच में ही द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का आदेश दिया। दुःशासन साड़ी को खिंचने लगा। द्रौपदी चिखते चिल्लाते रहे पर कोई बचाने नहीं आया। जब सारे मार्ग बंद हो गया तो समझा अब अंतिम राह मुरारी है। श्रीकृष्ण को आर्त पुकार की तो बहन का मान बचाने उस दिन द्रौपदी को सहस्रों साड़ी में लिपट दिया।

सूत्र का महत्व

वैसे ही रक्षा की कामना करते हुए युद्ध में जाने से पहले राजा के हाथ में राणी ऐसे ही धागा बांधते थे। मंगल कामना करते हुए रक्षा सूत्र बांधने का परंपरा प्राचीन है। परंतु सूत्र ही क्यों?

सूत्र एक प्रतीक है, जो कि दो वस्तुओं को जोड़ता है। अर्थात उसे हम एक माध्यम के रूप में देखते हैं। इसी कारण किसी भी समस्या का समाधान करने के लिए जो आवश्यक उपाय हो उसे हम समाधान सूत्र मानते हैं।

आपसी सम्पर्क का सूक्ष्म तत्व को भी हम सम्पर्क सूत्र कहते हैं। इसका कारण है जब एक माला को हम देखते हैं तो लगता है कि वह एक दुसरे के साथ जुड़े हुए हैं। परंतु गहराई में जाए तो पता चलता है कि वह एक सूत्र के कारण जुड़े हैं। वह सूत्र विश्वास, स्नेह, आत्मीयता का है और यदि यह नहीं रहा तो संबंध टूट जाता है।

ऐसे ही यह संबंध का डोर धीरे-धीरे भाई-बहन के भीतर अनोखा परंपरा का निर्माण किया।

ऐतिहासिक महत्व

1905 में जब बंग भूमि को तोड़ने का षड्यंत्र रचा गया तब गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इसे रोकने के लिए इस प्राचीन परंपरा को न‌ए रूप में आम नागरिकों के साथ मनाने का निश्चय किया। बंग भंग विरोधी उनके मित्रगण मिल कर 16 अक्टूबर को गंगा-स्नान कर सभी के हाथ में धागा बांधते चले गए। उस दिन भर किसी के घर में रसोई बंद था। गीत गाते हुए, अंग्रेज सरकार के इस नीति का विरोध करते हुए भाषण, विदेशी वस्तुओं को वर्जन करना चलता रहा और एक समय अंग्रेज सरकार को इसके आगे झुकना पड़ा। 1911 को बंग भंग को रोक दिया गया।

सामाजिक उत्सव- रक्षा बंधन

1925 को नागपुर, महाराष्ट्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्थापना होने बाद संगठन के उस समय के कार्यकर्ताओं ने मिलकर भारत के प्राचीन परंपराओं में से प्रमुख कुछ परंपरा को संगठन के उत्सवों में शामिल किया। ऐसे ही प्राचीन तथा आज भी उपयोगी इस रक्षा बंधन को संगठन का प्रमुखता दी। इन सभी उत्सवों का पालन करने का उद्देश्य था उसके महत्व को जन समाज में प्रचार कर उसको सामाजिक रूप प्रदान करना।

शुरुवात के समय यह उत्सव को समाज ने भाई-बहनों के बीच का एक परंपरा के अतिरिक्त कुछ नहीं मान रहे थे। परंतु साल दर साल यह मित्रता का परिचायक बनता गया। वास्तव में भी संबंध के कटुता को कम कर मिठास भरने में सक्षम हो रहा। धीरे-धीरे संघ शाखा से बाहर स्वयंसेवकों ने इसे सामाजिक रूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सर्व व्यापी, सर्व स्पर्शी बंधन

आज रक्षा बंधन उत्सव को एक अनुपम रचनात्मक दृष्टि से हम देख पा रहे हैं। एक दिन के लिए ही सही पर यह मित्रता का बंधन का विस्तार झुग्गी बस्ती, दिव्यांग स्कूलों, देश के सीमा में तैनात जवानों, स्थानीय पुलिस-प्रशासनों, धार्मिक स्थल आदि सभी स्थानों में हो रहा।

प्रकृति हमें रक्षा करते हैं तो उन्हें भी रक्षा करना अपना कर्तव्य है इस सोच के साथ ‘प्रकृति रक्षा बंधन’ भी मनाया जा रहा है।

धीरे-धीरे अपना छोटा सा परिवार से वसुंधरा परिवार हमारा यह वोध का जागरण हो रहा है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ यह भारतीय संस्कृति का अनुपम तत्व की ओर हमे प्रेरित करता है।

समाज में हम सभी भाई-भाई हैं। सभी एक दूसरे के परिपूरक है। कर्म कोई किसी भी प्रकार का करें परंतु सभी सम्मान के योग्य है। सभी वर्गों को जोड़ता है यह रक्षा बंधन। समाज में समरसता लाता है रक्षा बंधन। समाज में सद्भावना जगाता है रक्षा बंधन।

जिस रक्षा बंधन बंग भंग को रोक दिया था तो आज क्या उसका वल क्षीण हो सकती है! कभी भी नहीं। आज भी रक्षा बंधन हमें स्वदेशी का बोध कराता हैं। स्वाधीनता से स्वतंत्रता की ओर ले जाता है।

भारतीय संस्कृति का अनुपम उदाहरण जो सदियों से चली आ रही है। आगे भी चलता रहेगा।

रक्षा का सूत्र है ऐसा

भेदभाव को दूर भगाएं।

जन जन के हृदयों में

मित्रता का अलख जगाए।

 

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