
डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार : गीता से प्रेरित जीवन चरित
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जीवन सामान्य होते हुए भी असामान्य था। उनकी वेशभूषा, खान-पान और समाज में सभी के साथ व्यवहार सामान्य था, लेकिन इन सबके अतिरिक्त उनका चरित्र उन्हें अन्य लोगों से अलग करता था। उन्होंने गीता के ज्ञान को आत्मसात कर, ऋषितुल्य जीवन व्यतीत किया और आजीवन अविवाहित रहे।
आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
भारत में जन्मे प्रत्येक संत-महात्मा के जीवन में सामाजिक दायित्व के साथ-साथ एक आध्यात्मिक पक्ष भी देखने को मिलता है। नए युग के सूत्रपात के महत्वपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही संभवतः परमेश्वर ने उनके जन्म का दिन वर्ष प्रतिपदा के पावन पर्व पर निर्धारित किया होगा। वेद, गीता आदि शास्त्रों की चर्चा जिस घर में होती थी, उसी वेदज्ञ ब्राह्मण परिवार में बलिराम पंत हेडगेवार और रेवतीबाई के घर उनका जन्म हुआ। बचपन से ही घर में नित्य पूजा-पाठ और शास्त्र अध्ययन का वातावरण था। बड़े भाई महादेव शास्त्री के संरक्षण में वे व्यायाम और पहलवानी भी करते थे। उनके भीतर राष्ट्र और धर्म के प्रति अटूट निष्ठा कूट-कूट कर भरी हुई थी। देश को स्वतंत्र कर हिंदू राष्ट्र के रूप में पुनः स्थापित करना मानो उनके जन्म से पहले ही निश्चित हो चुका था।
क्रांतिकारी बालक: हेडगेवार का राष्ट्रप्रेम
डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार उस समय के सभी प्रकार के आंदोलनों में सक्रिय रूप से सम्मिलित हुए। वे छात्रावस्था से ही स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गए थे। विद्यालय में पढ़ाई के दौरान, जब ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के साठ वर्ष पूरे होने पर मिठाइयाँ बाँटी गईं, तो उन्होंने यह कहते हुए मिठाई फेंक दी कि “वह हमारी महारानी तो नहीं हैं।” उस समय उनकी आयु मात्र आठ वर्ष थी।
कुछ वर्षों बाद, इंग्लैंड के राजा एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के अवसर पर आयोजित आतिशबाजी कार्यक्रम का उन्होंने बहिष्कार किया। 1907 में ‘रिस्ले सर्कुलर’ के माध्यम से वंदे मातरम् के उद्घोष पर प्रतिबंध लगाया गया, जिसके विरोध में उन्होंने विद्यालय में आंदोलन खड़ा किया। विद्यालय निरीक्षक के स्वागत के लिए वंदे मातरम् के उद्घोष की योजना भी उन्हीं की थी। उन्हें यह भी ज्ञात था कि इसके कारण उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो सकती है, और हुआ भी वही—उन्हें विद्यालय से निष्कासित कर दिया गया।
1908 में एक पुलिस चौकी पर बम फेंकने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार किया गया, लेकिन प्रमाणों के अभाव में रिहा कर दिया गया। नील सिटी स्कूल से निष्कासन के बाद, उन्होंने दूसरे विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा बहुत अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण की। ऐसे निडर और राष्ट्रप्रेमी बालक का संपूर्ण जीवन गीता से प्रेरित था।
क्रांतिकारी मार्ग से आध्यात्मिक राष्ट्रनिर्माण तक
कोलकाता मेडिकल कॉलेज में अध्ययन के दौरान, डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार भारत के प्रमुख क्रांतिकारी संगठन ‘अनुशीलन समिति’ से जुड़े। इस समिति के प्रत्येक क्रांतिकारी के पास गीता रहती थी, वे आत्मा के अमरत्व में विश्वास रखते थे और अपने कार्य को ईश्वरीय कर्तव्य मानते थे। समिति के महान क्रांतिकारी अरविंद घोष, कारावास से मुक्त होने के पश्चात उत्तरपाड़ा में दिए गए अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था कि “भारत का पुनः उत्थान एक आध्यात्मिक शक्ति के कारण होगा।” इसके बाद, उन्होंने स्वयं को राजनीति से अलग कर पूर्ण रूप से आध्यात्मिक जीवन की ओर मोड़ लिया।
गीता से प्रेरित राष्ट्र सेवा
डॉ. हेडगेवार ने अपने जीवन का समर्पण ईश्वर को कर दिया था। गीता में वर्णित सभी गुण उनके व्यक्तित्व में स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित होते थे। ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होंने गीता के प्रत्येक सिद्धांत को अपने जीवन में आत्मसात किया था। समाज में रहते हुए भी उन्होंने एक संन्यासी के समान निर्मोही और अविवाहित जीवन व्यतीत किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना
1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना के समय, उनके मन में यह स्पष्ट कल्पना थी कि धर्म के आधार पर परम वैभवशाली राष्ट्र का निर्माण एक ईश्वरीय कार्य है। वे मानते थे कि ईश्वर इस पवित्र कार्य के लिए अपना आशीर्वाद प्रदान करेंगे। किंतु इसके लिए स्वयंसेवकों को अपने ध्येय के प्रति अटूट निष्ठा रखनी होगी, राष्ट्र की साधना करनी होगी और वीरता के व्रत का पालन करना होगा। साथ ही, आने वाली सभी बाधाओं को विवेकपूर्ण ज्ञान से दूर करते हुए स्वयं को आधुनिक महाभारत के अर्जुन के रूप में तैयार करना होगा।
निष्काम कर्म और नेतृत्व का उदाहरण
इसी कारण डॉ. हेडगेवार ने स्वयंसेवकों को कभी यह आश्वासन नहीं दिया कि संघ में आने से कुछ विशेष लाभ मिलेगा। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि यह कार्य मातृभूमि के प्रति कर्तव्य भावना से करना होगा, न कि किसी पुरस्कार या सम्मान की अपेक्षा से। गीता में वर्णित निष्काम कर्म का यही सार है—
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
सः यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।” (गीता 3.21)
व्यवहार से शिक्षण
डॉ. हेडगेवार केवल वाणी से उपदेश नहीं देते थे, बल्कि अपने कर्म और आचरण द्वारा स्वयंसेवकों को सिखाते थे। उनकी नेतृत्व शैली में मित्रवत् स्नेह था, जहाँ आयु का अंतर होते हुए भी वे स्वयंसेवकों के साथ एक कदम आगे रहकर गपशप और संवाद के माध्यम से सरल, लेकिन प्रभावशाली ज्ञान प्रदान करते थे।
शिक्षा का आत्मसात्
स्वयंसेवकों ने भी इस ज्ञान को अपने व्यवहार में उतारा और अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया। उन्होंने जो कुछ सीखा, उसे केवल सुना या समझा नहीं, बल्कि अपने आचरण में भी उतारने का प्रयास किया। यही संघ की शिक्षण पद्धति का मूल आधार था, जिसमें कर्म के माध्यम से नेतृत्व और अनुशासन को साकार किया जाता है।
संघ स्थापना: संघर्ष, उपहास और अटूट संकल्प
संघ की स्थापना के बाद डॉ. हेडगेवार को अनेक प्रकार की निंदा और अपमान सहना पड़ा। डॉक्टरी की डिग्री प्राप्त करने के बावजूद, जब वे बच्चों के साथ खेलकूद करते थे और इसे हिंदू समाज के संगठन का माध्यम मानते थे, तो यह लोगों को पागलपन प्रतीत होता था। आए दिन लोग मजाक उड़ाते हुए पूछते—
“आज तुम्हारी शाखा में कितने लोग आए?”
“यह कार्य कब तक पूरा होगा?”
सिर्फ आम लोग ही नहीं, बल्कि उनके आत्मीय जन, मित्र और बड़े-बड़े नेता भी उनका उपहास उड़ाते थे। लेकिन डॉ. हेडगेवार इस ईश्वरीय कार्य में पूरी तरह समर्पित थे। उनके लिए यह सब “तुल्यनिंदास्तुतिर्मौनी संतुष्ट येन केनचित्” और “समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः” जैसी गीता की शिक्षाओं का जीवंत उदाहरण था। वे कभी किसी पर क्रोधित नहीं होते थे और मात्र एक मुस्कान भरे उत्तर से अपने दृढ़ संकल्प और कार्य के प्रति अटूट विश्वास को व्यक्त करते थे।
अडिग साधना और कठिन संघर्ष
“शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान् मे प्रियो नरः।।”
डॉ. हेडगेवार के लिए संघ केवल एक संगठन नहीं, बल्कि साधना थी। चाहे घनघोर वर्षा हो, तपती गर्मी हो या कड़कड़ाती ठंड—संघ कार्य में कभी एक पल की भी शिथिलता नहीं आई। आर्थिक स्थिति ठीक न होने के बावजूद, वे भक्ति और समर्पण के बल पर निरंतर कार्य करते रहे।
समर्पण और संघ का विस्तार
डॉ. हेडगेवार ने कई बार आधा खाकर या बिना खाए ही अनवरत भ्रमण किया। उनके पास साधन नहीं थे, जूते फट जाने पर नंगे पैर नागपुर की तपती सड़कों पर चलते रहे। वाहन न मिलने पर लंबी दूरियाँ पैदल तय कीं। लेकिन उनका सहज, सरल और विश्वास से भरा संवाद लोगों को आकर्षित करता गया। सभी जानते थे कि संघ से कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं मिलेगा, फिर भी लोग जुड़ते गए और संघ का कार्य विस्तार पाता गया।
संघ विस्तार: युवा स्वयंसेवकों का समर्पण
जब स्वयंसेवक उच्च शिक्षा की तैयारी करने लगे, तब डॉ. हेडगेवार ने उन्हें अलग-अलग प्रांतों में जाने के लिए प्रेरित किया। वे बिना किसी संकोच के नागपुर और महाराष्ट्र छोड़कर देश के विभिन्न हिस्सों में चले गए। वहाँ उन्होंने न केवल अपनी पढ़ाई जारी रखी, बल्कि स्थानीय भाषा, खान-पान और रीति-रिवाजों को सीखकर संघ कार्य का विस्तार किया।
कल्पना कीजिए—एक युवा स्वयंसेवक, जो अपने घर और संस्कृति से दूर किसी अपरिचित प्रदेश में जाता है, जहाँ भाषा, भूषा, भोजन और जलवायु तक अलग होती है। फिर भी, सिर्फ डॉक्टर हेडगेवार के प्रति अटूट श्रद्धा और संघ के आदर्शों के प्रति समर्पण के कारण, वे न केवल वहाँ जाते हैं, बल्कि संघ कार्य की नींव भी रखते हैं।
संघ का प्रचार: कठिनाइयों के बीच एक मिशन
इससे भी बड़ी चुनौती यह थी कि उन्होंने संघ की अवधारणा को समझाया कैसे?
आज की तरह उस समय संघ का नाम बहुत कम लोगों ने सुना था। केवल वे ही संघ को जानते थे, जो डॉ. हेडगेवार के संपर्क में आए थे।
डॉ. हेडगेवार पत्र लिखकर स्वयंसेवकों को भेजते, और वे अपनी मेहनत और समर्पण से संघ कार्य को खड़ा करते। तब कोई संघ साहित्य या पुस्तिका उपलब्ध नहीं थी, जिससे लोग संघ के बारे में पढ़कर जान सकें। स्वयंसेवकों के सामने संघ का स्वरूप बस एक ही था—डॉ. हेडगेवार स्वयं।
जब कोई पूछता कि संघ क्या है? इसका उद्देश्य क्या है? यह कैसे कार्य करता है?—तो इन सभी प्रश्नों का एकमात्र उत्तर था डॉक्टर हेडगेवार का जीवन और कार्य।
डॉ. हेडगेवार का प्रभाव
संघ कार्य शुरू होने के बाद जब डॉ. हेडगेवार उन स्थानों का प्रवास करते, तो बड़े-बड़े विद्वान और प्रभावशाली लोग भी उनसे प्रभावित होते। उनकी वाणी में प्रखर विद्वता नहीं, बल्कि गहरी सादगी होती थी। वे केवल अपने जीवन के अनुभवों को सहज भाषा में प्रस्तुत करते। उनका एकमात्र संदेश था—
“भारत हिंदू राष्ट्र है, और जब हिंदू संगठित होंगे, तभी यह राष्ट्र परम वैभव को प्राप्त करेगा।”
उनकी इन सभी बातों के पीछे राष्ट्र और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और संघ कार्य के प्रति अटूट विश्वास था।
संघ: अनवरत साधना और गीता का साकार रूप
1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई, और तब से लेकर आज तक संघ कार्य निरंतर बढ़ता जा रहा है। अनगिनत स्वयंसेवक प्रचारक रूप में अपना जीवन राष्ट्र को समर्पित कर रहे हैं। कई ऐसे गृहस्थ कार्यकर्ता भी हैं, जो अविवाहित रहते हुए प्रचारकों की तरह ही संघ कार्य को अपना समय दे रहे हैं।
डॉ. हेडगेवार के समय संघ का विस्तार महाराष्ट्र से अन्य प्रांतों तक हुआ। उनके जाने के बाद भी संघ निरंतर बढ़ते हुए जिलों, नगरों, गाँवों और बस्तियों तक पहुँच चुका है। संघ की नित्य शाखा एक अखंड राष्ट्र साधना का स्वरूप है। यदि कोई स्वयंसेवकों से पूछे कि संघ में आने से क्या मिलेगा, तो वे सहज ही कहेंगे—”कुछ नहीं मिलेगा!” यही तो गीता का संदेश है—
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
बस कर्तव्य रूप कर्म करते जाओ, बिना किसी अभिलाषा के। साल के 365 दिन, चाहे शीत हो या ग्रीष्म, तूफान आए या घनघोर वर्षा—गुरु भगवा ध्वज के समक्ष राष्ट्र साधना अनवरत चलती रहती है।
संघ कार्य: एक ईश्वरीय मिशन
हर दिन स्वयंसेवक यह स्मरण करते हैं कि यह कार्य ईश्वरीय कार्य है—“त्वदीयाय कार्याय”। यह एक स्वेच्छा से स्वीकार किया गया कार्य भी है, जिसमें बाधाएँ आएंगी, किंतु धर्म के आधार पर राष्ट्र को परम वैभव संपन्न बनाने के लिए हम संगठित होकर वीरव्रत धारण किए हुए हैं। इस अडिग निष्ठा से कार्य करने पर ईश्वर का आशीर्वाद अवश्य प्राप्त होगा।
इस साधना के माध्यम से हम न केवल भौतिक और आध्यात्मिक सुख प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि मोक्ष की ओर भी अग्रसर हो सकते हैं—”समुत्कर्षनिःश्रेय”।
संघ के लिए पूर्ण समर्पण
किन्तु स्वयं के लिए क्या चाहिए? उत्तर है—“पतत्वेष कायो” अर्थात यह शरीर भारत माता के लिए समाप्त हो जाए। इसका जीवंत उदाहरण स्वयं डॉ. हेडगेवार हैं, जिन्होंने अपने अस्थि-रक्त को गलाकर संघ रूपी भव्य भवन की नींव रखी।
आज संघ का जो विराट स्वरूप हम देख रहे हैं, उसकी आधारशिला डॉ. हेडगेवार स्वयं हैं। उनके जीवन से प्रेरित होकर शत-शत कार्यकर्ता स्वयं को नींव के पत्थर के रूप में विसर्जित कर चुके हैं।
संघ: धर्म स्थापना का आधार
जैसे भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा—
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।”
अर्थात—सज्जनों के संरक्षण, दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए भगवान हर युग में अवतरित होते हैं।
वैसे ही, कलियुग में संघ शक्ति के रूप में ईश्वर का आविर्भाव हुआ है—
“त्रेतायां मंत्र-शक्तिश्च, ज्ञानशक्तिः कृते-युगे।
द्वापरे युद्ध-शक्तिश्च, संघशक्ति कलौ युगे।।”
संघ इन्हीं तीन कार्यों के लिए गीता ज्ञान को आधार मानकर कार्य कर रहा है। महाभारत के कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को धर्म स्थापना के लिए गीता का ज्ञान दिया था।
उसी प्रकार, एक और “केशव”—डॉ. हेडगेवार—ने स्वयं को उदाहरण बनाकर स्वयंसेवकों को वही ज्ञान दिया। यह ज्ञान आज भी संघ के प्रत्येक स्वयंसेवक के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
“संघ को समझना है तो पूजनीय डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार को समझना होगा।”
क्योंकि उनका जीवन ही गीता के सिद्धांतों से ओतप्रोत है, और वही संघ कार्य का आधार है।