इस्लामाबाद का प्रतिशोध अभियान: बांग्लादेश को गुलामी और भारत को अस्थिरता की आग में झोंकने की साजिश

इस्लामाबाद का प्रतिशोध अभियान: बांग्लादेश को गुलामी और भारत को अस्थिरता की आग में झोंकने की साजिश

1971 के मुक्ति संग्राम में पराजय को झेले अब पाँच से अधिक दशक बीत चुके हैं, लेकिन पाकिस्तान की सैन्य सत्ता आज भी उस कटु अपमान को नहीं पचा सकी है, जो बंगाली जनता द्वारा उसे झेलना पड़ा था। उस युद्ध में, जिसमें भारत ने निर्णायक हस्तक्षेप किया था, पूर्वी पाकिस्तान आज़ाद हो गया और स्वतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश के रूप में अंतरराष्ट्रीय पटल पर उभरा। यह घटना न केवल पाकिस्तान के भूगोल का विभाजन थी, बल्कि उसकी सैन्य और वैचारिक सत्ता की नींव पर भी करारा प्रहार था। इस्लामाबाद में बैठी सैन्य शीर्ष कमान आज भी उस पराजय के स्मृति-चिह्नों से पीछा नहीं छुड़ा पाई है। वह पराजय उनके लिए केवल एक सैन्य असफलता नहीं, बल्कि भारतीय सेना और तथाकथित “छद्म-हिंदुओं” के हाथों मिली एक ऐसी ऐतिहासिक अपमानजनक हार थी, जिसकी पीड़ा उन्हें भीतर तक झुलसाती रहती है। इसी पीड़ा और ग्रंथि ने वर्षों से उनके भीतर प्रतिशोध की एक अग्नि को सुलगाकर रखा है, जो कभी बुझती नहीं।

 

पाकिस्तानी नेतृत्व, विशेषकर वहां की सेना और खुफिया एजेंसियां, बंगालियों की सांस्कृतिक और भाषाई स्वतंत्रता को लंबे समय से एक संकट के रूप में देखती रही हैं। एक सुनियोजित रणनीति के तहत उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान पर उर्दू को थोपने का प्रयास किया, यह सोचकर कि सांस्कृतिक समरूपता के नाम पर बंगाली पहचान को मिटाया जा सकता है। लेकिन बंगाली जनता ने इस वैचारिक अत्याचार का डटकर विरोध किया। परिणामस्वरूप 1952 में वह ऐतिहासिक भाषा आंदोलन सामने आया, जिसमें कई बंगालियों ने अपनी मातृभाषा की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दी। इस आंदोलन ने यह स्पष्ट कर दिया था कि बंगाली अस्मिता और सम्मान किसी भी प्रकार की जबरन एकरूपता को स्वीकार नहीं करेगी।

 

1952 का भाषा आंदोलन कोई साधारण विरोध नहीं था; वह एक चेतना थी, एक सशक्त उद्घोष, जिसने आने वाले दशकों में स्वतंत्रता की आकांक्षा को और गहराई दी। उसी क्षण से एक अलग राष्ट्र की कल्पना, अपने सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा करने की भावना, और पाकिस्तान के पश्चिमी सत्ताधीशों के विरुद्ध एक सशक्त जनचेतना का जन्म हुआ। यह आंदोलन उस दीर्घकालिक संघर्ष की शुरुआत थी, जिसकी परिणति 1971 में मुक्ति संग्राम के रूप में हुई।

 

आज, बांग्लादेश की स्वतंत्रता को 54 वर्ष से भी अधिक समय बीत चुके हैं, लेकिन पाकिस्तान की सैन्य सत्ता पर आरोप है कि वह एक गुप्त किंतु अत्यंत खतरनाक एजेंडा आगे बढ़ा रही है, बांग्लादेश पर दोबारा नियंत्रण स्थापित करने और उसके नागरिकों को इस्लामाबाद के अधीनस्थ, आज्ञाकारी प्रजा के रूप में बदलने का सपना देख रही है। इस पूरे षड्यंत्र की नींव एक रणनीतिक हथियार पर टिकी है, जिन्हें “स्टैंडेड पाकिस्तानी” (Stranded Pakistanis) कहा जाता है, और जिन्हें बांग्लादेश में सामान्यतः बिहारी के रूप में जाना जाता है। इनमें से कई लोग आज भी पाकिस्तान के प्रति निष्ठावान माने जाते हैं।

 

1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान, जब बांग्लादेश अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहा था, बिहारी, जो मुख्यतः उर्दू-भाषी मुसलमान थे और भारत के बिहार, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से 1947 के विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान में आकर बसे थे, उन्होंने पाकिस्तानी सेना का खुलकर समर्थन किया। इस समर्थन की परिणति भीषण हिंसा, बलात्कार, हत्याओं और बंगाली समुदाय की सम्पत्तियों की लूटपाट में हुई। मुक्ति संग्राम की समाप्ति के बाद, स्वतंत्र बांग्लादेश में इन बिहारी समुदायों को “सहयोगी” और “देशद्रोही” के रूप में देखा गया और वे सामाजिक-राजनीतिक बहिष्कार के शिकार हुए।

 

स्वतंत्रता के तुरंत बाद पाकिस्तान ने लगभग 83,000 बिहारी नागरिकों, जिनमें कई सरकारी कर्मचारी और सैन्य अधिकारी शामिल थे, को वापिस अपने देश में बसाया, जबकि उसने कुल 1,70,000 लोगों को पुनर्वासित करने का वादा किया था। लेकिन यह प्रक्रिया 1974 में अचानक बंद कर दी गई। विश्लेषकों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि यह निर्णय केवल एक प्रशासनिक ठहराव नहीं था, बल्कि पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी, इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) , की एक सुविचारित रणनीति का हिस्सा था। ISI ने इन लोगों को शरणार्थी नहीं, बल्कि भविष्य की “रणनीतिक पूंजी” के रूप में देखा, ऐसे संभावित “स्लीपर एजेंट” या “मौन सैनिक”, जिन्हें समय आने पर सक्रिय किया जा सकता है, ताकि बांग्लादेश को अस्थिर किया जा सके और साथ ही भारत के भीतर असंतुलन पैदा किया जा सके।

 

इन बिहारी समुदायों को बांग्लादेश के भीतर लंबे समय से हाशिये पर रखा गया है, लेकिन पाकिस्तान की नज़र में वे अभी भी एक चालित मोहरा हैं, जिन्हें किसी बड़े भूराजनीतिक खेल में पुनः प्रयोग में लाया जा सकता है। यही कारण है कि पाकिस्तान आज भी इस वर्ग के प्रति ‘संवेदनशीलता’ दर्शाता है, जबकि असल मंशा किसी प्रकार की मानवता नहीं, बल्कि भविष्य के लिए एक छुपा हुआ हमला है।

 

वर्तमान समय में अनुमानित 3 लाख से 6 लाख के बीच बिहारी समुदाय के लोग बांग्लादेश में रह रहे हैं। इनका अधिकांश हिस्सा ढाका और 13 अन्य जिलों में स्थित अत्यधिक घनी आबादी वाले, गरीबीग्रस्त बस्तियों में बसता है। इन शिविरों में वर्षों से ग़रीबी, शिक्षा की घोर कमी और व्यापक बेरोज़गारी जैसी समस्याएं व्याप्त हैं, ऐसे सामाजिक परिदृश्य जो किसी भी समाज को कट्टरपंथ और अपराध की ओर धकेलने के लिए उपजाऊ ज़मीन सिद्ध होते हैं।

 

आईएसआई की भयावह पुनरुत्थान रणनीति

 

मध्य 2024 से, पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) ने बांग्लादेश में अपनी गतिविधियों को तीव्र रूप से तेज़ किया है, और इस प्रक्रिया में उसने बिहारी समुदाय की सामाजिक-आर्थिक कमजोरियों को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। खुफिया स्रोतों और खोजी रिपोर्टों के अनुसार, इन शिविरों में अब नशीले पदार्थों की तस्करी, हथियारों की आपूर्ति से लेकर मानव तस्करी तक की अवैध गतिविधियाँ फल-फूल रही हैं। लेकिन इससे भी अधिक चिंताजनक तथ्य यह है कि अब ये बस्तियाँ जिहादी विचारधारा और भारत-विरोधी उग्रवाद की प्रयोगशाला बन चुकी हैं।

 

ISI के मार्गदर्शन में, चुने हुए बिहारी युवाओं को 2022 की शुरुआत से ही पाकिस्तान भेजा गया, जहाँ उन्हें विस्फोटकों की हैंडलिंग, छापामार युद्ध की तकनीकों और कट्टर इस्लामी विचारधारा का प्रशिक्षण दिया गया। इस प्रशिक्षण से लौटने के बाद, इन ISI समर्थित तत्वों ने विभिन्न शिविरों में खाद्य सामग्री और राहत सामग्रियाँ बाँटनी शुरू कीं, जिससे वहाँ रहने वाले लोग एक प्रकार की निर्भरता और निष्ठा के भाव से बंधने लगे। स्थानीय केबल नेटवर्क के माध्यम से उर्दू भाषा में ऐसे डॉक्युमेंट्री और कार्यक्रम दिखाए गए, जो भारत में मुसलमानों के तथाकथित उत्पीड़न की कहानियाँ सुनाते थे और जिहाद को एक पवित्र उत्तरदायित्व के रूप में महिमामंडित करते थे। यह प्रचार अभियान न केवल पुराने घावों को फिर से कुरेदने का प्रयास था, बल्कि साम्प्रदायिक विभाजन को और भी गहरा कर देने वाला घातक औज़ार बन गया।

 

2024 के मध्य तक ऐसी रिपोर्टें सामने आईं कि 5,000 से अधिक बिहारी युवाओं ने इस प्रकार का सैन्य और वैचारिक प्रशिक्षण पूरा कर लिया था। लेकिन जुलाई के अंत तक यह संख्या तेजी से बढ़कर लगभग 50,000 तक पहुँच गई। हथियारों, हथगोले और विस्फोटकों से लैस इन प्रशिक्षित एजेंटों ने बांग्लादेश के भीतर सुनियोजित हमलों की एक शृंखला छेड़ दी। पुलिस थानों पर हमले किए गए, जेलों से अपराधियों को भगाया गया, शस्त्रागार लूटे गए और सुनियोजित टारगेट किलिंग की घटनाओं को अंजाम दिया गया।

 

बांग्लादेश के लिए यह केवल आंतरिक सुरक्षा का संकट नहीं, बल्कि उसकी संप्रभुता के विरुद्ध एक सुनियोजित वैचारिक, सैन्य और राजनीतिक आक्रमण है। यह खतरा जितना बांग्लादेश के लिए है, उतना ही भारत के लिए भी, क्योंकि इस पूरे अभियान का अंतिम लक्ष्य भारत की स्थिरता और उसके सामाजिक ताने-बाने को भी क्षत-विक्षत करना है।

 

 

5 अगस्त 2024 को, जब बांग्लादेश में चारों ओर हिंसा और अराजकता फैली हुई थी, तब प्रधानमंत्री शेख हसीना देश छोड़कर भाग गईं। उनके देशत्याग के तुरंत बाद उपजे शून्य का लाभ उठाते हुए बांग्लादेश के भीतर सक्रिय आईएसआई नेटवर्क ने प्रशिक्षित बिहारी युवाओं के बीच नकद धन और हथियारों का वितरण शुरू कर दिया। इसके बाद जो हुआ वह बांग्लादेश के इतिहास में एक वीभत्स और भयावह अध्याय बन गया, पूरे देश में हिंसा की लहर दौड़ पड़ी।

 

इस संगठित हिंसा का मुख्य निशाना बने अवामी लीग के समर्थक, हिंदू अल्पसंख्यक समुदाय और उनके धार्मिक स्थल। उपद्रवियों ने घरों में आगजनी की, लूटपाट की, मंदिरों को तोड़ा और महिलाओं के साथ व्यापक यौन हिंसा की घटनाओं को अंजाम दिया। ये हिंसा केवल भीड़ की उन्मादी प्रतिक्रिया नहीं थी, बल्कि यह एक सुनियोजित और प्रशिक्षित नेटवर्क द्वारा की गई सैन्य-प्रकार की कार्रवाई थी।

 

सबसे चौंकाने वाली बात यह रही कि बांग्लादेश की सड़कों पर खुलेआम अल-कायदा और आईएसआईएस जैसे कट्टर इस्लामी आतंकी संगठनों के झंडे लहराए गए। इस अशांति में ‘हिज्ब उत-तहरीर’ और ‘हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम’ जैसे संगठनों ने भी हिस्सा लिया, जिससे स्थिति और भी विस्फोटक हो गई। इन घटनाओं के पीछे जमात-ए-इस्लामी जैसे कट्टरपंथी संगठनों का समर्थन स्पष्ट था। और यह भी साफ़ हो गया कि बांग्लादेश की सेना के भीतर मौजूद कुछ pro-इस्लामाबाद अधिकारियों की चुप्पी या मौन सहमति इस पूरे षड्यंत्र को बल प्रदान कर रही थी। इन सबके कारण पाकिस्तान, विशेषकर उसकी खुफिया एजेंसी ISI, ढाका पर अपनी छाया सत्ता को पुनः स्थापित करता हुआ प्रतीत होने लगा।

 

शेख हसीना के बाद के बांग्लादेश में जब पाकिस्तान की पकड़ और मज़बूत हो गई, तो ISI ने अपनी रणनीति के अगले चरण की शुरुआत की, भारत में आतंक के निर्यात की। प्रशिक्षित बिहारी जिहादी अब छोटे-छोटे दलों (10 से 50 लोगों तक) में भारत-बांग्लादेश सीमा पार करवाए गए। यह घुसपैठ सुनियोजित मानव तस्करी के मार्गों का उपयोग करके की गई, जिन पर ISI की गहरी पकड़ थी।

 

भारत में दाखिल होने के बाद इन घुसपैठियों ने ‘आधार कार्ड’ जैसे पहचान दस्तावेज़ हासिल किए और सामान्य भारतीय नागरिकों की तरह समाज में घुलमिल गए। उन्होंने खुद को रसोइया, नाई, घरेलू कामगार, निर्माण मजदूर, और दिहाड़ी श्रमिक के रूप में स्थापित कर लिया। चूंकि वे हिंदी और उर्दू में धाराप्रवाह थे, इसलिए वे आसानी से भारतीय नागरिकों के रूप में स्वीकृत हो गए। परंतु जो बात भारत की अधिकतर खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों से अनजान रह गई, वह यह थी कि इन लोगों की असल पहचान एक प्रशिक्षित आतंकवादी की थी, वे देश के अंदर ही अंदर बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुँचाने और भारत को भीतर से अस्थिर करने की गुप्त योजना पर काम कर रहे थे।

 

यह सब कोई आकस्मिक घटनाक्रम नहीं था, बल्कि पाकिस्तान द्वारा रचित एक दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा था, एक ऐसी नीति जिसमें न केवल बांग्लादेश को अपनी कूटनीतिक छाया में लाना था, बल्कि भारत को उसकी सीमाओं के भीतर अस्थिर कर उसे रणनीतिक रूप से पंगु बना देना था।

 

एचआईवी जैविक हथियार की साज़िश

 

पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI द्वारा रचित कथित षड्यंत्र का सबसे अमानवीय और घिनौना पहलू एक जैविक हथियार की तरह इस्तेमाल की गई योजना से जुड़ा है, HIV संक्रमित महिला एजेंटों का उपयोग। खुफिया सूत्रों के अनुसार, ISI के निर्देशन में कई युवा बिहारी महिलाओं को जानबूझकर HIV (एड्स) जैसे जानलेवा वायरस से संक्रमित किया गया। इन महिलाओं को भारी मात्रा में धन देकर भारत भेजा गया, जहाँ उन्हें वेश्यालयों और विभिन्न सेवा क्षेत्रों में नियोजित किया गया, ताकि वे इस लाइलाज बीमारी को फैलाकर सुनियोजित रूप से भारतीय समाज, विशेषकर सम्पन्न हिंदू पुरुषों को निशाना बना सकें।

 

इनमें से कुछ महिलाओं ने, जब अपनी स्वास्थ्य स्थिति के पूर्ण रूप से बिगड़ने की आशंका को समझा, तब आत्मघाती हमलों के लिए स्वयं को तैयार करने की पेशकश भी की, जिससे वे मानव बम के रूप में भी प्रयोग की जा सकें। यह कोई सामान्य आतंकवाद नहीं, बल्कि जैविक युद्ध जैसा दुस्साहस है, जो मानवता के विरुद्ध युद्ध की सबसे नीच और राक्षसी परिकल्पना का उदाहरण बन चुका है।

 

भारत की जनसंख्या पर इस प्रकार बीमारी फैलाकर युद्ध छेड़ना न केवल ISI की परंपरागत युद्ध शैली से हटकर है, बल्कि यह उस मानसिकता को दर्शाता है जो नैतिकता, मानवाधिकार या अंतरराष्ट्रीय नियमों की कोई परवाह नहीं करती। यह रणनीति आतंकवाद के सबसे काले अध्यायों की याद दिलाती है, जहाँ मानव शरीर को ही एक घातक हथियार बना दिया जाता है।

 

जहाँ एक ओर भारतीय सुरक्षा एजेंसियाँ बांग्लादेश और म्यांमार से अवैध घुसपैठियों (विशेषकर रोहिंग्याओं) को पकड़ने और वापस भेजने के प्रयासों में लगी हैं, वहीं ISI द्वारा प्रशिक्षित बिहारी जिहादियों की यह विशेष किस्म की घुसपैठ अभी भी सरकारी सतर्कता से दूर बनी हुई है। यही लापरवाही भविष्य में भारत के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकती है। ये स्लीपर एजेंट न केवल देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सीधा खतरा हैं, बल्कि ये कभी भी किसी बड़े आतंकवादी हमले को अंजाम देने की सामर्थ्य रखते हैं, और वह भी पूरी योजना, प्रशिक्षण और शस्त्रों से लैस होकर।

 

स्थिति को और भी गंभीर बना देने वाला तथ्य यह है कि खुफिया रिपोर्टों के अनुसार ISI अब जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में वर्ष 2025 में हुए भयावह नरसंहार जैसे हमलों की पुनरावृत्ति की योजना बना रहा है, इस बार वह हमला बांग्लादेश की भूमि से संचालित किया जा सकता है। इस पूरी साजिश को बांग्लादेश के आतंकी संगठनों, जैसे जमातुल मुजाहिदीन बांग्लादेश (JMB), हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लामी (HuJI), और अंसार-अल-इस्लाम के साथ जोड़ा गया है, जिनके भारत के भीतर पहले से ही सक्रिय स्लीपर सेल मौजूद हैं। ये स्लीपर सेल पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर भारत के कुछ इलाकों में स्थानीय सहानुभूति रखने वाले तत्वों के संरक्षण में पनप रहे हैं।

 

यदि इस उभरते खतरे को तुरंत, निर्णायक और व्यापक रणनीति से नियंत्रित नहीं किया गया, तो भारत को अपने पूरब की उस सीमा से एक भयावह और अप्रत्याशित आतंकी आघात का सामना करना पड़ सकता है, जिसे इतिहास में अब तक उपेक्षित या गौण समझा जाता रहा है।

 

पाकिस्तान द्वारा बांग्लादेश के बिहारी समुदाय को हिन्दू-विरोधी और भारत-विरोधी युद्ध के लिए एक उपकरण के रूप में प्रयोग करना न तो केवल भारत और बांग्लादेश की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा है, बल्कि यह एक समूचे क्षेत्रीय संकट का संकेत है, जिसके गंभीर वैश्विक सुरक्षा प्रभाव हो सकते हैं। दक्षिण एशिया एक बार फिर राज्य प्रायोजित उग्रवाद और सांप्रदायिक नफरत की आग में नहीं झोंका जा सकता। यह समय है, जब बांग्लादेश, भारत और वैश्विक समुदाय को इस संकट की गंभीरता को समझते हुए निर्णायक कदम उठाने होंगे, क्योंकि यदि आज यह साजिश नहीं रोकी गई, तो कल यह पूरे उपमहाद्वीप को लहूलुहान कर सकती है।

 

पाकिस्तान की सैन्य और खुफिया एजेंसियों द्वारा रचित यह साजिश, जिसके तहत बांग्लादेश पर दोबारा नियंत्रण स्थापित करना और बिहारी समुदाय को कट्टरपंथी बनाकर भारत के विरुद्ध परोक्ष युद्ध छेड़ना है, केवल एक क्षेत्रीय समस्या नहीं, बल्कि एक भूराजनीतिक आपातस्थिति है। हम आज जिस वास्तविकता के साक्षी बन रहे हैं, वह केवल वर्तमान की चुनौती नहीं, बल्कि उस वर्षों पुरानी प्रतिशोध की भावना का विस्फोट है, जिसे अब “राष्ट्रविहीन” लोगों को आतंक के पैदल सैनिकों में बदलकर अंजाम दिया जा रहा है।

 

यह षड्यंत्र न केवल बांग्लादेश की संप्रभुता और सामाजिक ताने-बाने को ध्वस्त करने की कोशिश है, बल्कि भारत जैसे लोकतांत्रिक और बहुलतावादी राष्ट्र को भीतर से अस्थिर करने का भी सुनियोजित प्रयास है। यदि इस खतरे का सामना उस गंभीरता और तत्परता के साथ नहीं किया गया, जिसकी यह मांग करता है, तो पूरा दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप एक बार फिर राज्य-प्रायोजित विद्रोह, सांप्रदायिक हिंसा और सीमापार आतंकवाद के नए युग में प्रवेश कर जाएगा।

 

अंतरराष्ट्रीय समुदाय, विशेषकर क्षेत्रीय शक्तियाँ और वैश्विक आतंकवाद विरोधी संस्थाएँ, अब और मूकदर्शक बने नहीं रह सकते। समय आ गया है जब इस संकट के विरुद्ध एक तत्काल और समन्वित अभियान चलाया जाए, जिसके अंतर्गत निम्नलिखित ठोस कदम उठाना आवश्यक हैं:

 

  1.  बांग्लादेश में मौजूद ISI के आतंकी नेटवर्क को जड़ से समाप्त किया जाए।
  2. भारत के भीतर सक्रिय स्लीपर सेल्स को चिन्हित कर निष्क्रिय किया जाए।
  3. बिहारी समुदाय जैसे संवेदनशील और सामाजिक रूप से हाशिये पर खड़े समूहों के लिए व्यापक डि-रेडिकलाइज़ेशन (विचारधारा निष्क्रमण) और पुनर्वास कार्यक्रम शुरू किए जाएँ।

 

यदि अभी निर्णायक कार्रवाई नहीं की गई, तो इससे न केवल इस्लामाबाद के दुस्साहस को और बल मिलेगा, बल्कि यह पूरे दक्षिण एशिया को अस्थिरता, रक्तपात और व्यापक जनहानि की चपेट में धकेल सकता है। यह एक ऐसी आग है जो सीमाओं में नहीं बँधेगी, यह वैश्विक शांति और सुरक्षा के लिए भी गम्भीर खतरा बन सकती है।

 

घड़ी चल रही है।

यदि आज हमने चुप्पी साधी, तो कल की कीमत पूरे विश्व को चुकानी पड़ सकती है। और तब जो परिणाम सामने आएँगे, वे अवापसी की सीमा को पार कर चुके होंगे।

 

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