मुगल विदेशी आक्रांता अथवा भारतीय ?

मुगल विदेशी आक्रांता अथवा भारतीय ?

वामपंथी बुद्धिजीवियों, इतिहासकारों एवं कथित इस्लामिक स्कॉलरों द्वारा कभी बाबर, कभी अकबर, कभी जहाँगीर, कभी औरंगजेब तो कभी टीपू सुल्तान को नायक की तरह प्रस्तुत करने के बहुविध प्रयत्न किए जाते हैं। यहाँ तक कि वामपंथी बुद्धिजीवियों एवं इतिहासकारों का प्रश्रय व प्रोत्साहन पाकर समुदाय विशेष के कुछ लोग अथवा समूह मुगलों की आड़ में यदा-कदा गजनी, गोरी, नादिर और तैमूर जैसे लुटेरों, आतताईयों एवं मज़हबी मतांधों को भी नायक सिद्ध करने की कुचेष्टा करते हैं।

 

वरिष्ठ स्तंभकार एवं सुप्रसिद्ध लेखक बलबीर पुंज द्वारा 27 मार्च, 2025 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख “द औरंगजेब वी नो” के जवाब में 1 अप्रैल, 2025 को इंडियन एक्सप्रेस में ही नसीरुद्दीन शाह द्वारा लिखे गए लेख “द मुगल्स यू डोंट नो” में ऐसा ही एक उदाहरण देखने को मिला। नसीरुद्दीन शाह अपने लेख में मुगलों का (प्रकारांतर से औरंगजेब का भी) महिमामंडन तो करते हैं, परंतु बलबीर पुंज द्वारा प्रस्तुत तर्कों एवं तथ्यों के प्रत्युत्तर में कोई ठोस व स्पष्ट प्रमाण नहीं प्रस्तुत कर पाते। नसीरुद्दीन शाह मुगलों या इस्लामिक आक्रांताओं के अकेले पैरोकार नहीं हैं, बल्कि यह सूची बहुत लंबी है।

कट्टर व मतांध शासकों एवं मज़हबी आक्रांताओं पर गर्व करने की बात मुस्लिम समाज में से अधिकांश के लिए नई नहीं है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि ऐसी सोच एवं जुनूनी प्रवृत्तियाँ इस्लामिक समाज के न केवल कट्टरपंथी तत्त्वों में, बल्कि आम मुस्लिमों में भी प्रायः देखने को मिलती रही हैं। वस्तुतः समस्या के प्रमुख कारणों और उसके पीछे की मानसिकता को समझे बिना मूल तक पहुँचना संभव नहीं। पृथक पहचान एवं मज़हबी कट्टरता की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल, संगठन एवं कुफ़्र-काफ़िर दर्शन में विश्वास रखने वाले तमाम उलेमा-मौलवी एवं उनके अनुयायी, जहाँ अकबर, जहाँगीर, औरंगज़ेब, टीपू सुल्तान जैसे शासकों एवं अन्य मज़हबी आक्रांताओं को नायक की तरह पेश करते हैं, वहीं दूसरी ओर देश के अधिसंख्य सनातनी इन्हें खलनायक अथवा मतांध आक्रांता की तरह ही देखते हैं।

 

यह समझने की आवश्यकता है कि अतीत के किसी शासक को नायक या खलनायक मानने के पीछे ऐतिहासिक स्रोतों एवं साक्ष्यों के अलावा जनसाधारण की अपनी भी एक दृष्टि या धारणा होती है। वह दृष्टि या धारणा रातों-रात नहीं बनती, अपितु उसके पीछे उस समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक जड़ों, परंपराओं, जीवन-मूल्यों, जीवनादर्शों से लेकर संघर्ष-सहयोग, सुख-दुःख, जय-पराजय, गौरव-अपमान आदि की साझी अनुभूतियों के साथ-साथ, उस शासक द्वारा प्रजा के हिताहित में किए गए कार्यों की भी महती भूमिका होती है। यह अकारण नहीं है कि इस देश की आम एवं बहुसंख्यक जनता ने लंबी अवधि तक शासन करने वाले, सफल सैन्य व विजय-अभियानों का संचालन करने वाले या विस्तृत भूभागों पर आधिपत्य स्थापित करने वाले – सम्राटों-बादशाहों-सुल्तानों आदि की तुलना में – उदार, सहिष्णु, समदर्शी, परोपकारी, प्रजावत्सल एवं न्यायप्रिय राजा तथा लोकहितकारी राज्य को अधिक मान व महत्त्व दिया।

 

मज़हबी मानसिकता से ग्रसित कट्टरपंथी लोग, क्षद्म पंथनिरपेक्षतावादी बुद्धिजीवी एवं कथित इतिहासकार मुस्लिम आक्रांताओं, मुग़लों या औरंगज़ेब एवं टीपू सुल्तान जैसे शासकों को लेकर भले ही कुछ भिन्न दावा करें, परंतु आम धारणा यही है कि ये सभी क्रूर, बर्बर, मतांध, अत्याचारी एवं आततायी थे। ऐतिहासिक साक्ष्य एवं विवरण भी इसकी पुष्टि करते हैं। सिने अभिनेता नसीरुद्दीन शाह को भी अपने लेख में न-न करते हुए भी – औरंगजेब को कट्टर एवं क्रूर शासक तथा गजनी, गोरी, नादिर, तैमूर को लुटेरा मानना ही पड़ा। परंतु वे बलबीर पुंज के इस तर्क का समुचित व संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाए कि “मुगलों का महिमंडन, केवल एक निजी राय, सामाजिक या राजनीतिक बहस नहीं है, अपितु यह एक सभ्यतागत दृष्टिकोण है, जिसमें औरंगजेब जैसों को आदर्श इस्लामी शासक के रूप में देखा और माना जाता है।”

 

मुगलों का महिमामंडन एवं यशोगायन करने वाले लोग क्या यह नहीं जानते कि मुहम्मद बिन क़ासिम, गजनी, गोरी, खिलजी, तैमूर, नादिर, अब्दाली आदि की तरह वे (मुग़ल) भी विदेशी आक्रांता थे और उन्होंने सदैव भारत से विलग अपनी पृथक पहचान को न केवल जीवित रखा, अपितु बढ़ा-चढ़ाकर उसे प्रस्तुत भी किया?

उनका हृदय भारत और भारतीयों से अधिक, जहाँ से वे आए थे, वहाँ के लिए धड़कता था। उन्होंने भारत से लूटे गए धन का बड़ा हिस्सा समरकंद, खुरासान, दमिश्क, बगदाद, मक्का, मदीना जैसे शहरों एवं वहाँ के विभिन्न घरानों एवं इस्लामिक ख़लीफ़ा आदि पर खर्च किया। वे स्वयं को तैमूरी या गुरकानी राजवंश से जोड़कर देखते थे। जिस तैमूर ने तत्कालीन विश्व की लगभग 5 प्रतिशत आबादी का कत्लेआम किया, जिसने दिल्ली में लाखों निर्दोष हिंदुओं का अकारण ख़ून बहाया, वे उससे जुड़ा होने में गौरव का अनुभव करते थे। भारत आने के पीछे भी उनका कोई महान उद्देश्य न होकर लूट-खसोट व मज़हबी कट्टरता की भावना ही प्रबल थी। यहाँ बसने के पीछे भी उनका मक़सद ऐशो-आराम एवं शानो-शौक़त की ज़िंदगी बसर करना और अपना तिज़ोरी भरना ही रहा, न कि कतिपय बुद्धिजीवियों-इतिहासकारों-फिल्मकारों के शब्दों में कथित तौर पर भारत का निर्माण करना। बल्कि सच्चाई तो यह है कि बाबर भारत और भारतीयों से इतनी घृणा करता था कि मरने के बाद उसने स्वयं को भारत से बाहर दफ़नाए जाने की इच्छा प्रकट की थी। अधिकांश मुगल बादशाह अत्यंत व्यसनी, विलासी एवं मदांध रहे। नैतिकता, चारित्रिक शुचिता एवं आदर्श जीवन-मूल्यों के पालन आदि की कसौटी पर वे भारत के परंपरागत राजाओं की तुलना में पासंग बराबर भी नहीं ठहरते। राजकाज, सुशासन एवं सुव्यवस्था से अधिक वे अपने अजब-गज़ब फैसलों, तानाशाही फ़रमानों एवं भोग-विलास के अतिरेकी किस्सों के लिए याद किए जाते हैं।

 

बहादुरशाह जफ़र जैसे चंद अपवादों को छोड़कर अधिकांश मुग़ल बादशाह मज़हबी कट्टरता में आकंठ डूबे रहे। बहुसंख्यकों पर उन्होंने बहुत ज़ुल्म ढाए। उनके शासन-काल में मठों एवं मंदिरों का व्यापक पैमाने पर ध्वंस कराया गया, भगवान के विग्रह तोड़े गए, पुस्तकालयें जलाईं गईं। कथित गंगा-जमुनी तहज़ीब के पैरोकार एवं पंथनिरपेक्षता के झंडाबरदार अकबर को महानतम शासक बताते नहीं थकते, पर वे यह नहीं बताते कि उसने चितौड़ का दुर्ग जीतने के बाद वहाँ उपस्थित 40,000 निःशस्त्र एवं निर्दोष हिंदुओं को मौत के घाट उतरवा दिया था।

अकबर, जहाँगीर एवं शाहजहाँ आदि को इतिहास से लेकर साहित्य और सिनेमा में भी आदर्श प्रेमी व न्यायप्रिय राजा की तरह प्रस्तुत किया जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि वे अत्यंत दुर्बल, भोगी एवं कामुक प्रवृत्ति के थे। अतिशय भोग, रूप और सौंदर्य की पिपासा में न तो उन्होंने संबंधों का मान रखा, न ही नैतिकता का पालन किया और न ही निर्दोषों का ख़ून बहाने में ही कोई संकोच किया। उनके हरम में हजारों स्त्रियाँ बंदी बनाकर जबरन लाई जाती थीं और वे असहनीय यातनाएँ एवं कलहपूर्ण स्थितियाँ झेलने को अभिशप्त होती थीं। अबुल फजल के मुताबिक अकेले अकबर के हरम में 5000 औरतें थीं, जिनमें से अधिकांश राजनीतिक संधियों या युद्ध में जीत के बाद उसे उपहार स्वरूप मिली थीं।

मुगलों के काल में कला, वास्तु, स्थापत्य, भवन-निर्माण आदि के विकास का यशोगायन करते समय इस तथ्य की नितांत उपेक्षा कर दी जाती है कि जहाँ से वे आए थे, उन क्षेत्रों में कला या निर्माण के ऐसे एक भी तत्कालीन नमूने या उदाहरण देखने को नहीं मिलते। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि जिन्हें हम मुगलों की देन कहते नहीं थकते, दरअसल वे भारत के शिल्पकारों, वास्तुविदों, कारीगरों, कलाकारों की पारंपरिक एवं मौलिक दृष्टि, खोज व कुशलता के परिणाम हैं?

जहाँ तक औरंगज़ेब की कट्टरता एवं मतांधता की बात है तो उसे दर्शाने के लिए 9 अप्रैल 1669 को उसके द्वारा ज़ारी राज्यादेश पर्याप्त है, जिसमें उसने सभी हिंदू मंदिरों एवं शिक्षा-केंद्रों को नष्ट करने के आदेश दिए थे। इस आदेश को काशी-मथुरा समेत उसकी सल्तनत के सभी 21 सूबों में लागू किया गया था। औरंगजेब के इस आदेश का जिक्र उसके दरबारी लेखक मुहम्मद साफी मुस्तइद्दखां ने अपनी किताब ‘मआसिर-ए-आलमगीरी’ में भी किया है। 1965 में प्रकाशित वाराणसी गजेटियर की पृष्ठ-संख्या 57 पर भी इस आदेश का उल्लेख है

इतिहासकारों का मानना है कि इस आदेश के बाद गुजरात का सोमनाथ मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवदेव मंदिर, अहमदाबाद का चिंतामणि मंदिर, बीजापुर का मंदिर, वडनगर का हथेश्वर मंदिर, उदयपुर में झीलों के किनारे बने 3 मंदिर, उज्जैन के आसपास के मंदिर, चितौड़ के 63 मंदिर, सवाई माधोपुर में मलारना मंदिर, मथुरा में राजा मानसिंह द्वारा 1590 में निर्माण कराए गए गोविंद देव मंदिर समेत देश भर के सैकड़ों छोटे-बड़े मंदिर ध्वस्त करा दिए गए। मज़हबी ज़िद व जुनून में उसने हिंदुओं के त्योहारों एवं धार्मिक प्रथाओं को भी प्रतिबंधित कर दिया था।

1679ई. में उसने हिंदुओं पर जजिया कर लगा, उन्हें दोयम दर्ज़े का नागरिक या प्रजा बनकर जीने को विवश कर दिया। यह अत्यंत अपमानजनक कर होता था, जिसे वे गैर-मुसलमानों से जबरन वसूला करते थे। तलवार या शासन का भय दिखाकर उसने बड़े पैमाने पर हिंदुओं का मतांतरण करवाया। इस्लाम न स्वीकार करने पर उसने निर्दोष एवं निहत्थे हिंदुओं का क़त्लेआम करवाने में भी कभी कोई संकोच नहीं किया। मज़हबी सोच व सनक में उसने सिख धर्मगुरु तेगबहादुर और उनके तीन अनुयायियों भाई मति दास, सती दास और दयाल दास को अत्यंत क्रूरता एवं निर्दयता के साथ मरवा दिया, गुरुगोविंद सिंह जी के साहबजादों को जिंदा दीवारों में चिनबा दिया, संभाजी को अमानुषिक यातनाएँ दे-देकर मरवाया। जिस देश में श्रवण कुमार और देवव्रत भीष्म जैसे पितृभक्त पुत्रों और राम-भरत-लक्ष्मण जैसे भाइयों की कथा-परंपरा प्रचलित हो, वहाँ अपने बूढ़े एवं लाचार पिता को कैद में रखने वाला तथा अपने तीन भाइयों दारा, शुजा और मुराद की हत्या कराने वाला व्यक्ति जनसामान्य का आदर्श या नायक नहीं हो सकता!

सम्राट अशोक के अपवाद को औरंगजेब के पर्याय के रूप में प्रस्तुत करने वाले लोग यह न भूलें कि लोक में उसकी व्यापक स्वीकार्यता का मूल कारण उसका प्रायश्चित-बोध एवं मानस परिवर्तन के बाद सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा जैसे शाश्वत मानवीय सिद्धांतों के प्रति उपजी उसकी दृढ़ निष्ठा थी, न कि साम्राज्य-विस्तार की लालसा या युद्ध-पिपासा या भाइयों को मारकर सम्राट बनने की दंतकथा। यह मनुष्यता का तक़ाज़ा है कि किसी भी सभ्य, स्वस्थ, उदार, सहिष्णु एवं लोकतांत्रिक समाज में औरंगज़ेब जैसे क्रूर, बर्बर एवं अत्याचारी शासक के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

ठीक इसी प्रकार टीपू सुल्तान का महिमामंडन करने वाले लोग भी उसकी क्रूरता, मतांधता एवं कट्टरता के विवरणों से भरे ऐतिहासिक प्रमाणों एवं अभिलेखों आदि पर एकदम मौन साध जाते हैं। 19 जनवरी, 1790 को बुरदुज जमाउन खान को एक पत्र में टीपू ने स्वयं लिखा है, ‘क्या आपको पता है कि हाल ही में मैंने मालाबार पर एक बड़ी जीत दर्ज की है और चार लाख से अधिक हिंदुओं का इस्लाम में कंवर्जन करवाया है।’ सईद अब्दुल दुलाई और अपने एक अधिकारी जमान खान को लिखे पत्र में वह कहता है, ‘पैगंबर मोहम्मद और अल्लाह के करम से कालीकट के सभी हिंदुओं को मुसलमान बना दिया है। केवल कोचिन स्टेट के सीमावर्त्ती इलाकों के कुछ लोगों का कंवर्जन अभी नहीं कराया जा सका है। मैं जल्द ही इसमें भी क़ामयाबी हासिल कर लूँगा।’ टीपू ने घोषित तौर पर अपनी तलवार पर खुदवा रखा था -‘ मेरे मालिक मेरी सहायता कर कि मैं संसार से क़ाफ़िरों (ग़ैर मुसलमानों) को समाप्त कर दूँ।’

 

‘द मैसूर गजेटियर’ के अनुसार टीपू ने लगभग 1000 मंदिरों का ध्वंस करवाया था। स्वयं टीपू के शब्दों में, ‘यदि सारी दुनिया भी मुझे मिल जाए, तब भी मैं हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने से नहीं रुकूँगा’ (फ्रीडम स्ट्रगल इन केरल)। 1760 से 1790 के कालखंड में उसने कोडागु में 600 से अधिक मंदिरों को नष्ट करवाया। अन्यान्य अनेक स्रोतों से पता चलता है कि टीपू ने लगभग 8000 मंदिरों को तुड़वाया। 19वीं सदी में ब्रिटिश सरकार में अधिकारी रहे लेखक विलियम लोगान की ‘मालाबार मैनुअल’, 1964 में प्रकाशित केट ब्रिटलबैंक की ‘लाइफ ऑफ टीपू सुल्तान’ आदि पुस्तकों तथा उसके एक दरबारी एवं जीवनी लेखक मीर हुसैन किरमानी के विवरणों से ज्ञात होता है कि टीपू वास्तव में एक अनुदार, असहिष्णु, मतांध, क्रूर एवं अत्याचारी शासक था। ग़ैर-मुस्लिम प्रजा पर बेइंतहा जुल्म ढाने, लाखों लोगों का जबरन मतांतरण करवाने तथा हजारों मंदिरों को तोड़ने के मामले में वह दक्षिण का औरंगज़ेब था। इतिहासकार डॉ चिदानंद मूर्त्ति के अनुसार मांड्या जिले के मेलकोट के ब्राह्मण आज भी दिवाली नहीं मनाते क्योंकि टीपू ने दीपावली के एक दिन पूर्व वहाँ बड़े पैमाने पर ब्राह्मणों का नरसंहार करवाया था। इस नरसंहार का उल्लेख उस समय ब्रिटिश सेना में मद्रास के कमांडर रहे जॉर्ज हैरिस की डायरी में भी मिलता है।

आरोप तो यहाँ तक लगते हैं कि उसने अफ़ग़ान शासक जमान शाह समेत कई विदेशी शासकों को भारत पर आक्रमण हेतु आमंत्रण भी भेजा था।

 

तमाम ऐतिहासिक साक्ष्यों एवं प्रमाणों के आलोक में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि आखिर किन-किन षड्यंत्रों व योजनाओं के अंतर्गत हमारी पाठ्यपुस्तकों में क्रूर, मतांध, बर्बर व आततायी शासकों एवं विदेशी आक्रांताओं का महिमामंडन किया गया और महानायक-सी पात्रता रखने वाले भारतीय योद्धाओं की घनघोर उपेक्षा की गई? उन्हें मुख्यधारा तो दूर, हाशिए पर भी जगह नहीं दी गई। छत्रपति संभाजी, पेशवा बाजीराव, लाचित बोड़फ़ुकन, ललितादित्य मुक्तापीड, बप्पा रावल, महाराणा सांगा, महाराणा कुंभा, सरदार हरि सिंह नलवा जैसे असंख्य राष्ट्र-नायकों की वीरता और सिख गुरुओं एवं उनकी संतानों की बलिदानी परंपरा की तुलना में तुर्कों, अफगानों, मुगलों और अंग्रेज लॉर्डों के अतिरंजित यशोगायन को भला कैसे उचित एवं तर्कसंगत ठहराया जा सकता है? कैसी विचित्र विडंबना है कि इतिहास की हमारी पाठ्यपुस्तकों में एक ओर मुगलों की पूरी-की-पूरी वंशावली रटा दी गई, उन्हें महान व न्यायप्रिय सिद्ध करने के लिए मिथ्या कहानियाँ रची गईं, झूठे विमर्श गढ़े गए तो दूसरी ओर छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, राजा कृष्णदेव राय, राजराजा चोल जैसे तमाम वास्तविक महानायकों को भी चंद पृष्ठों में समेट दिया गया? पाठ्यक्रम-निर्माताओं, कथित इतिहासकारों व बुद्धिजीवियों से यह पूछा जाना चाहिए कि क्यों उन्होंने स्वातंत्रत्योत्तर भारत की तमाम पीढ़ियों को राष्ट्र के वास्तविक नायकों एवं अतीत के गौरवशाली चित्रों एवं चरित्रों की गौरव-गाथा से वंचित रखा? क्यों छत्रपति सँभा जी महाराज की वीरता की कहानी जानने के लिए वर्तमान पीढ़ी को “छावा” जैसी फ़िल्म की प्रतीक्षा करनी पड़ी?

भारत ने अपनी सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के लिए कितना-कुछ भोगा और भुगता, यह हमें विस्तार से बताया जाना चाहिए था, बारंबार बताना चाहिए था ताकि सम्यक शत्रु-बोध व इतिहासबोध विकसित हो। पर हुआ इसके ठीक विपरीत, कथित गंगा-जमुनी तहज़ीब और क्षद्म पंथनिरपेक्षता के नाम पर हमारे स्वाभिमान को बार-बार कुचला गया। हमारे आहत स्वाभिमान और अतीत के ज़ख्मों पर मरहम लगाने के बजाय स्वतंत्र भारत की अधिकांश सरकारों द्वारा उस पर नमक छिड़कने का ही कार्य किया गया। हद तो यह है कि अपने महान भारतवर्ष में आततायी आक्रांताओं के नाम पर सड़कों, शहरों, पार्कों, चौक-चौराहों एवं सार्वजनिक भवनों-स्टेशनों आदि के नाम रखे गए, उन नामों की पैरोकारी की गई और स्वतंत्रता के कई दशकों बाद तक उन्हें यथावत रहने दिया गया। देश के न केवल दूर-दराज के शहरों-इलाकों, बल्कि राष्ट्रीय राजधानी की सड़कों-पार्कों, चौक-चौराहों, भवनों-स्टेशनों आदि के नाम भी इन आक्रांताओं के नाम पर मिल जाते हैं। यह प्रश्न उचित होगा कि उन्हें देखकर, पढ़कर, सुनकर वर्तमान पीढ़ी के मन में कैसी प्रेरणा जगती होगी, उनके मन में कैसे-कैसे भाव, आदर्श व मूल्यबोध विकसित होते होंगें? भला क्या कोई देश आक्रमणकारियों के जश्न मना सकता है? क्या संयुक्त राज्य अमेरिका में ओसामा-बिन-लादेन अथवा इंग्लैंड-इजरायल में एडॉल्फ हिटलर के नाम पर किसी सड़क, भवन या चौक-चौराहों के नाम रखे जाने की कल्पना भी की जा सकती है? इंग्लैंड तो छोड़िए, जर्मनी तक में हिटलर के नामो-निशान नहीं मिलते। परंतु स्वतंत्र भारत में यह सब हुआ, क्षद्म पंथनिरपेक्षता और समुदाय विशेष के तुष्टिकरण के नाम पर हुआ, हिंसा, क्रूरता एवं बर्बरता की सभी सीमाएँ लांघ जाने वाले आक्रांताओं के नाम पर इमारतों-सड़कों-शहरों के नाम रखे गए, न केवल नाम रखे गए, बल्कि उन नामों की शान में दिन-रात कसीदे पढ़े गए, सालों-साल उन नामों पर जलसे रखे गए, जश्न मनाए गए, उन्हें सही साबित करने के लिए बेतुकी दलीलें पेश की गईं। और यदि किसी प्रबुद्ध व्यक्ति अथवा सम्यक भारतबोध रखने वाले चिंतक, इतिहासकार, संगठन आदि ने साहस कर, आक्रांताओं द्वारा की गई क्रूरता, बर्बरता तथा नरसंहार के महिमामंडन या निर्लज्ज उत्सव मनाने की इन प्रवृत्तियों एवं परिपाटी का विरोध किया या स्वयं को इनसे दूर व मुक्त रखा तो उलटे उन्हीं पर सांप्रदायिकता का आरोप मढ़ दिया गया।

आज के भारत में भी यदि बारंबार
औरंगजेब या टीपू सुल्तान या अन्य किसी आक्रांता को समुदाय विशेष द्वारा आदर्श नायक की तरह प्रस्तुत किया जाएगा तो इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। झूठे इतिहास को सच्चा बताकर बहुसंख्यक समाज के गले नहीं उतारा जा सकता। समरस समाज की स्थापना के लिए ‘गज़वा-ए-हिंद’ जैसे कट्टरपंथी विचारों एवं काल्पनिक स्वप्नों से मुस्लिम समाज को मुक्त होना होगा। जिन इस्लामिक शासकों या आक्रांताओं के चरित्र बहुसंख्यक प्रजा पर अन्याय एवं अत्याचार ढाने को लेकर इतिहास में कलंकित रहे हों, उन पर गर्व करने से परस्पर अविश्वास एवं संघर्ष ही उत्पन्न होगा। औरंगज़ेब और टीपू सुल्तान जैसे कट्टर शासकों को नायक के रूप में स्थापित करने या ज़ोर-जबरदस्ती से बहुसंख्यकों के गले उतारने की कोशिशों की बजाय मुस्लिम समाज द्वारा रहीम, रसखान, दारा शिकोह, बहादुर शाह ज़फ़र, अशफ़ाक उल्ला खां, खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान, वीर अब्दुल हमीद एवं ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे साझे नायकों व चेहरों को सामने रखा जाये तो समाज में भाईचारा बढ़ेगा और टकराव की संभावना भी कम होगी। इससे सहिष्णुता की साझी संस्कृति विकसित होगी। कट्टर शासकों या आक्रांताओं में नायकत्व देखने व ढूंढ़ने की प्रवृत्ति अंततः समाज को बाँटती है। यह जहाँ विभाजनकारी विषबेल को सींचती है, वहीं अतीत के घावों को कुरेदकर उन्हें गहरा एवं स्थाई भी बनाती है। अच्छा होता कि भारत का उदार एवं प्रबुद्ध मुस्लिम समाज एवं नेतृत्व ऐसे चरित्रों एवं चेहरों को इतिहास में दफन करके उन पर गर्व करने की मनोवृत्ति एवं मानसिकता पर अंकुश व विराम लगाता। क्योंकि यह सर्वमान्य सत्य है कि भारत में आज जो मुसलमान हैं, उनमें से अधिकांश के पूर्वज भी इन मज़हबी आक्रांताओं, क्रूर एवं कट्टर शासकों के अन्याय-अत्याचार से पीड़ित होकर ही मतांतरित हुए थे। इसे मानने में ही सबकी भलाई है कि मज़हब बदलने से पुरखे नहीं बदलते, मातृभूमि व संस्कृति नहीं बदलती। अतः यह समय की माँग है कि सच्चे राष्ट्रनायकों को इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में स्थान मिले ताकि आतताइयों के गुणगान की मूढ़ता की प्रवृत्ति पर अंकुश व विराम लगे।

 

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